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________________ 282 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सिद्धिः, अन्यथोपेयस्य निर्हेतुकत्वेन देश-काल-स्वभावप्रतिनियमो न स्यादितिसर्वप्राणिनामीश्वरत्वम् , न वा कस्यचित् स्यात् / प्रतिपादितश्चायमर्थः-[प्र. वा० 3/35 / नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् / अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भव ॥-इत्यादिना ग्रन्थेन धर्मकीत्तिना। तन्न रागादिक्लेशविगमः स्वभावत एवेश्वरस्येति युक्तम् / [चार्वाकेण सह परलोके विवादः] अत्र बृहस्पतिमतानुसारिणः-स्वभावसंसिद्धज्ञानादिधर्मकलापाध्यासितस्य स्थाणोरभावप्रतिपादनं जैनेन कुर्वताऽस्माकं साहाय्यमनुष्ठितमिति मन्वानाः प्राहुः-युक्तमुक्तं यत् 'स्वभावसंसिद्धज्ञानादिसम्पत्समन्वितस्येश्वरस्याभावः' / 'नारक-तिर्यग्नराऽमररूपपरिणतिस्वभावतयोत्पद्यन्ते प्राणिनोऽस्मिनिति' एतच्चाऽयुक्तमभिहितम् , परलोकसद्भावे प्रमाणाभावात् / तथाहि-परलोकसद्भावावेदकं प्रमाणं प्रत्यक्षम् अनुमानम् आगमो वा जैनेनाभ्युपगमनीयः, अन्यस्य प्रमाणत्वेन तेनाऽनिष्टः। . के प्रधान हेतु ही रागादिगण है / इस शत्रुगण को जीत लेने वाले जिन कहे जाते हैं। उपचार का आश्रय यहाँ यह दिखाने के लिये किया है कि संसार के उग्र कारणभूत रागादि का ध्वंस जब तक नहीं होता वहाँ तक उसके कार्यस्वरूप संसार यानी भव के ऊपर विजय पाना शक्य नहीं है। संसार के कारणीभूत रागादि के विजय का उपाय तो पहले दिखाया है, उस उपाय से प्रतिपक्षी रागादिगण का विजय करने द्वारा ही संसार को जिता जा सकता है, अन्यथा कभी उसका पराजय शक्य नहीं है। प्रसिद्ध ही बात है यह कि उपेय-प्राप्तव्य की सिद्धि कभी उपाय के विना नहीं होती। अगर विना उपाय भी उपेय सिद्ध हो जावे तब तो वह हेतुरहित हो जाने से, अमुक ही देश में-अमुक ही काल मेंअमुक ही स्वभाव वाली वस्तु उत्पन्न हो यह जो दृढ नियम देखा जाता है वह तूट जायेगा। उसका नतीजा यह होगा कि सभी जीव विना हेतु ही ऐश्वर्यभाग हो जायेंगे, अथवा तो कोई भी जीव ऐश्वर्यशाली नहीं रहेगा क्योंकि ऐश्वर्य को सहज सिद्ध मानने वाले उसको हेतुरहित मानते हैं। बौद्ध ग्रन्थकार धर्मकीत्ति का भी यही कहना है कि "हेतुरहित वस्तु को अन्य किसी की अपेक्षा न होने पर या तो उसको नित्य सत्त्व होगा या नित्य असत्त्व होगा। कारण, भावों की कादाचिकता का सम्भव अपेक्षाधीन है।” निष्कर्षः-रागादि क्लेशों का विनाश यानी अभाव, ईश्वर को सहज ही होता है-यह बात अयुक्त है। [ सर्वज्ञवादः समाप्तः [ परलोक के प्रतिक्षेप में चार्वाक का पूर्वपक्ष ] नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पतिनामक विद्वान के अनुगामीयों यहाँ-'स्वभाव से सिद्ध सहज ज्ञानादि चतुष्टय से अलंकृत ऐसा कोई पुरुषविशेष ईश्वर है ही नहीं- इस प्रकार निरूपण करने वाले जैनों ने हमारी सहायता की है ऐसा समझ कर अपनी बात कहते हैं कि 'स्वभाव से सिद्ध ज्ञानादि सम्पत्ति से युक्त कोई ईश्वर नहीं है'- यह ठीक ही कहा गया है। किन्तु यह जो आपने कहा-नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के पर्यायों को धारण करते हुए यहाँ प्राणिसमूह जन्म लेते हैं....इत्यादि, वह नितान्त गलत कथन है चूंकि परलोक के अस्तित्व में कोई भी प्रमाण मौजूद नहीं है / वह इस प्रकारपरलोक के अस्तित्व को दिखाने वाला अगर कोई प्रमाण जैन के पास होगा तो वह प्रत्यक्ष-अनुमान
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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