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________________ 458 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ यत्तदा तत्राऽविद्यमानमर्थमवैति ज्ञानं तत्र विपरीतख्यातिः, प्रत्यक्षप्रतीतिस्तु पूर्वसन्धानादप्युपजायमाना पुरः सदेव वस्तु गृह्णती कथं विपरीतख्यातिर्भवेत् ? ननु पूर्वरूपग्राहितया तस्याः सदर्थग्रहणमेव न सम्भवति, स्मरणोपनेयं हि रूपं प्रतियती वर्तमानतया प्रत्यक्षबुद्धिर्न प्रतिभासमानवपुषः सत्ता साधयितुमलं. प्रत्यस्तमितेऽपि रूपे स्मृतेरवतारात् / तदनुसारिणी चाक्षमतिरपि तदेवानुसरन्ती न सत्ताऽऽस्पदम् / तस्मादिन्द्रियमतिः सकला पूर्वरूपग्रहणं परिहरन्ती वर्तमाने परिस्फुटे वर्तत इति तदैव तद्गतां जतिमुद्भासयितु प्रभुरिति न पूर्वापरव्यक्तिगता जातिः समस्ति / यदेव हि द्वितीयव्यक्तिगत रूपं भाति तदेव सत् , पूर्वव्यक्तिगतं तु रूपं न भातोति न तत् सत् / ततश्चानेकव्यक्तिव्यापिकाया जातेरसिद्धिरिति न तत्र लिंग-शब्दयोरपि प्रवृत्तिरिति न ताभ्यामपि तत्प्रतिपत्तिः / यथा च व्यक्तिभिन्नाऽनुस्यूता जातिर्न सम्भवति तथा यथास्थानं प्रतिपादयिष्यत इत्यास्तां तावत / प्रतिभास से सम्बन्ध होने पर ही इन्द्रियजन्य बुद्धि परोक्षअर्थग्रहणशील बनने से स्पष्ट प्रतिभास उत्पन्न होगा और अनिकटवर्ती पदार्थ का ग्रहण होगा, इस प्रकार अनुसंधान और इन्द्रियजन्य बुद्धि दोनों का कार्यक्षेत्र ही अलग है तो उन दोनों का ऐक्य कैसे सम्भव है ? - नैयायिक:-परोक्षार्थग्रहण को इन्द्रियजन्य बुद्धि अपने आप आत्मसात् नहीं करती है। उत्तरपक्षीः-तब तो इन्द्रियबुद्धि उससे पृथग् ही हो गयी फिर इन्द्रियजन्य बुद्धि को अनुसन्धानात्मक दिखाने के लिये अनुसंधानकारक सामग्री को वहाँ क्यों दिखाते हैं ? दूसरी बात यह है कि जिस वस्तु का स्वभाव स्मृति के विषयरूप में दृश्यमान है वह यदि प्रत्यक्ष बद्धियों से भी अवगत हो जायेगा तब तो स्मति का विषयभूत वह पूर्वस्वभाव अतीत होने पर भी प्रत्यक्ष में वर्तमानरूप में भासने से वह प्रत्यक्ष विपरीतख्याति (अन्यथाख्याति) स्वरूप बन जायेगा / फलतः दर्शनरूप सभी प्रत्यक्ष अतीत वस्तु को वर्तमानरूप में ग्रहण करने के कारण विपरीतख्याति यानी भ्रमात्मक हो जाने की आपत्ति होगी। [पूर्वरूपग्राही बुद्धि सत्पदाथग्राही नहीं हो सकती ] नैयायिकः-ज्ञान जब स्वदेशकाल में अविद्यमान अर्थ का ग्रहण करता है तब विपरीतख्याति में परिणत होता है, प्रत्यक्षबुद्धि भले पूर्वसंधान से उत्पन्न होती हो, फिर भी वह संमुख देश में विद्यमान जात्यादि वस्तु को ग्रहण करती है, फिर विपरीतख्यातिरूप कैसे होगी? उत्तरपक्षीः-अरे, जब वह पूर्वदृष्टरूप का ग्रहण करती है तब वह सदर्थ की ग्राहिका ही कैसे हो सकती है ? स्मृति से उपस्थित रूप को वर्तमानरूप में प्रतीत करनेवाली प्रत्यक्षबुद्धि भासमानस्वरूपवाले पदार्थ की विद्यमानता को सिद्ध नहीं कर सकती है, क्योंकि नष्टस्वरूपवाले पदार्थ के ग्रा में स्मृति ही सक्रिय बनती है, प्रत्यक्षबुद्धि नहीं। स्मृति की अनुगामी प्रत्यक्षबुद्धि भी उस पूर्वरूप का ही ग्रहण करेगी तो वह सत्ताविषयक नहीं कही जा सकेगी। अर्थात् वह विद्यमानवस्तुग्राहक नहीं हो सकेगी। निष्कर्ष, सर्व इन्द्रियजन्यबुद्धि पूर्वदृष्टरूप का त्याग करती हुयी स्पष्ट एवं वर्तमान रूप में ही प्रवृत्त होती है अतः वर्तमानरूपान्तर्गत जाति के उद्भासन करने में ही वह सशक्त बनेगी, किन्तु पूर्वदृष्टपदार्थान्तर्गत जाति के ऐक्य का उद्भासन नहीं कर सकेगी। इस से यही फलित होगा कि पूर्वापरव्यक्तियों में कोई अनुगत जाति नहीं है। द्वितीयव्यक्ति में आश्रित जिस रूप का भान होता है उसी को सत् मानना होगा और पूर्वव्यक्ति में आश्रित रूप का भान नहीं होता, अतः उसको असत् मानना पडेगा।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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