________________ 382 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ तस्य प्रामाण्यम् , अनेकेश्वरप्रसंगदोषश्च / 'भवतु, को दोषः ! यत एकस्यापि साधने वयमतीवोत्सुकाः किं पुनर्बहूनामिति चेत् ? न कश्चित् प्रमाणाभावं मुक्त्वा / तन्नागमतोऽपि तत्प्रतिपत्तः / एवं स्वरूपासिद्धौ कथं तस्य कारणता? अत्राहः-यदुक्तम्-न तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणं' तदेवमेव / यदपि 'सर्वप्रकारस्यागमस्य न तत्स्वरूपावेदने व्यापृतिः' तत्रोच्यते-प्रागमाऽव्यापारेऽपि तत्स्वरूपसाधकमनुमान विद्यते / आगमस्यापि सिद्धेऽर्थे लिंगदर्शनन्यायेन यथा व्यापृतिः तथा प्रतिपादयिष्यामः / प्रत्यक्षपूर्वकानुमान निषेधे सिद्ध [ अनुमान से ईश्वरसिद्धि अशक्य ] ईश्वररूप धर्मी का आवेदक अनुमान भी नहीं हो सकता क्योंकि अनुमान की प्रवृत्ति प्रत्यक्षपूर्वक ही हो सकती है, ईश्वरग्राहक कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होने पर अनुमान की उस में प्रति अशक्य है। यदि कहें कि-'विशेषतः ईश्वररूप व्यक्ति का साधक अनुमान न होने पर भी सामान्यतोदृष्ट अनुमान की इस विषय में प्रवृत्ति शक्य है'-तो यह भी अशक्य है क्योंकि ईश्वर का प्रतिपादक कोई भी लिंग ही नहीं है / कार्यत्व हेतु से यदि उसकी सिद्धि करेंगे तो पृथ्वी आदि में कितने वादी के मत से कार्यत्व ही असिद्ध होने से वह लिंग नहीं बन सकेगा। संस्थान ( आकार )वत्ता के आधार पर भी वहां पृथ्वी आदि में कार्यत्वसिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि कार्यभूत विशाल भवनादि में जैसा संस्थान दृष्ट है वैसा ही संस्थान पृथ्वी आदि में नहीं है / किन्तु ऐसा अत्यन्त विलक्षण है कि उसके लिये संस्थान शब्द का प्रयोग ही अनुचित है / अत एव पृथ्वी के संस्थान में वादीयों ने संस्थानशब्दवाच्यता की अतिप्रसक्ति यह कहकर दिखायी है कि जिन वस्तुओं में प्रसिद्ध भेद है उनमें भी केवल शब्द के साम्य से ही अभेद रहता है।-तात्पर्य, राजभवनादि का संस्थान और पृथ्वी आदि का संस्थान अतिविलक्षण है, केवल संस्थानशब्द का ही साम्य है। अतः संस्थानवत्ता के आधार पर पृथ्वी आदि में कार्यत्व लिंग की सत्ता सिद्ध न हो सकने से कार्यत्वलिंगक अनुमान ईश्वरसिद्धि के लिये समर्थ नहीं है / [आगम से ईश्वर सिद्धि अशक्य ] आगम से भी ईश्वर सिद्धि अशक्य है / कारण, न्यायदर्शन में आगम को नित्य नहीं माना जाता। यदि आगम को नित्य मान लिया जाय तो भी मीमांसक मतानुसार जो साध्यभूत अर्थ का प्रतिपादक है वही प्रमाण होने से ईश्वरादि सिद्ध वस्तु को सिद्धि में उसका कोई व्यापार नहीं हो सकता। यदि आगम को ईश्वरप्रोक्त होने से प्रमाण मानगे तो ईश्वर से आगम के प्रामाण्य की सिद्धि और सिद्धप्रामाण्यवाले आगम से ईश्वरसिद्धि -इस प्रकार अन्योन्य आश्रय दोष लगेगा। यदि आगम को ईश्वरप्रणीत नहीं मानते हैं तब तो उसमें दोष की सम्भावना होने से वह प्रमाणभूत नहीं हो सकता। यदि कहें कि-ईश्वरप्रतिपादक आगम वह अन्य ईश्वर से रचित हाने से अन्योन्याश्रय दोष नहीं है तो वह अन्य ईश्वर से भी कौन से प्रमाण से सिद्ध है यह दिखाना पड़ेगा। उसकी सिद्धि न होने पर आगम प्रमाणभूत नहीं रहेगा, तदुपरांत उस ईश्वर की सिद्धि के लिये अन्य ईश्वर से रचित आगम को प्रमाण कहेंगे तो ऐसे अनेक ईश्वर की कल्पना का दोष प्रसंग होगा। यदि ऐसा कहें-'अनेक ईश्वर को मानेंगे, क्या दोष है ? हम तो एक ईश्वर की सिद्धि में भी अतीव उत्सुक है, यदि एक की सिद्धि करते हुये अनेक ईश्वरों की सिद्धि हो जाय तब तो कहना ही क्या ?'-तो यहाँ दोष प्रमाणन्यता को छोड कर और कोई नहीं है / एक ईश्वर में भो प्रमाण नहीं दे सकते वे अनेक ईश्वर में क्या