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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पू० 383 साधनम् , सामान्यतोदृष्टानुमानस्य तत्र व्यापाराभ्युपगमात् / नन्वनुमानप्रमाणतायामयं विचारो युक्तारम्भः, तस्यैव तु प्रामाण्यं नानुमन्यन्ते चार्वाका इति / एतच्चानुद्घोष्यम् , अनुमानप्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात। यत्तूक्तम् -पृथिव्यादिगतस्य कार्यत्वस्याऽप्रतिपत्तेन तस्मादीश्वरावगमः-तत्र पृथिव्यादीनां बौद्धः कार्यत्वमभ्युपगतं ते कथमेवं वदेयुः ? येऽपि चार्वाकाद्याः पृथिव्यादीनां कार्यत्वं नेच्छन्ति तेषामपि विशिष्टसंस्थानयुक्तानां कथमकार्यता ? सर्व संस्थानवत् कार्यम् , तच्च पुरुषपूर्वकं दृष्टम् / येप्याहुःसंस्थानशब्दवाच्यत्वं केवलं घटादिभिः समानं पृथिव्यादीनाम् , न तत्त्वतोऽर्थः कश्चिद् द्वयोरनुगतः समानो विद्यते-तेषामपि न केवलमत्रानुगतार्थाभावः किन्तु धमादावपि पूर्वापरव्यक्तिगतो नैव कश्चिदनुगतोऽर्थः समानोऽस्ति। अथ तत्र वस्तुदर्शनायातकल्पनानिमित्तमुक्तम् , अत्र तथाभूतस्य प्रतिभासस्याभावान्नानुगतार्थकल्पना / तथाहि-कस्यचिद् घटादेः क्रियमाणस्य विशिष्टां रचनां कर्तृ पूविकां दृष्ट्वाऽदृष्टकर्तृ कस्यापि प्रमाण दिखायेंगे ? फलित यह हुआ कि आगम से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती / जब प्रत्यक्ष-अनुमान और आगम से ईश्वर स्वरूप ही असिद्ध है तो वह सारे जगत् का कारण कैसे माना जाय ? ( शंका समाप्त ) [ पूर्वपक्षी की युक्तिओं का आलोचन ] * इस शंका के उत्तर में नैयायिक कहते हैं-ईश्वर का साधक प्रत्यक्षप्रमाण नहीं है यह जो कहा है वह ठीक ही है / यह जो कहा कि नित्य या अनित्य (=ईश्वरकृत) किसी भी प्रकार के आगम का ईश्वरस्वरूपावेदन करने में कोई व्यापार नहीं है-इस का उत्तर यह है कि आगम का व्यापार न होने पर भी उसके स्वरूप को सिद्ध करने वाला अनुमान मौजूद है। उपरांत, सिद्ध अर्थों में भी लिंगदर्शनन्याय से आगम का व्यापार सावकाश है इस बात को हम आगे दिखायेंगे। 'ईश्वरसिद्धि के लिये कोई प्रत्यक्षमूलक अनुमान नहीं है'- यह तो हमारे मत से जो सिद्ध है उसका ही अनुवाद हुआ / क्योंकि, हम तो सामान्यतोदृष्ट अनुमान का ही ईश्वर सिद्धि में व्यापार मानते हैं। यदि शंका की जाय कि-सामान्यतोदृष्ट अनुमान की विचारणा का प्रारम्भ तो अनुमान प्रमाण होने पर करना ठीक है, चार्वाक (नास्तिक) लोग तो उसको प्रमाण ही नहीं मानते है-तो ऐसी शंका उद्घोषणा करने योग्य नहीं है क्योंकि आपने ही तो अनुमान को प्रमाणरूप से सिद्ध किया है / [ द्र० पृ० 293 ] [ पृथ्वी आदि में कार्यत्व असिद्ध नहीं ] शंकाकार ने जो यह कहा-पृथ्वी आदि में रहा हुआ कार्यत्व सिद्ध न होने से, उससे ईश्वर की अनुमान बुद्धि नहीं की जा सकती- यहाँ बौद्ध तो ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि वे लोग तो पृथ्वी आदि में कार्यत्व को मानते ही हैं ( चूकि सब पृथ्वी आदि क्षण क्षण नये उत्पन्न होते हैं ) / जो नास्तिक लोग पृथ्वी आदि में कार्यत्व का स्वीकार नहीं करते हैं, उनके सामने प्रश्न है कि जब पृथ्वी आदि में विशिष्ट प्रकार का संस्थान विद्यमान है तो कार्यत्व कैसे नहीं है ? जो कुछ भी संस्थानवाली वस्तुएं हैं वे सभी कार्य ही है यह नियम है और कोई भी कार्य पुरुषजनित ही होता है यह तो सुप्रसिद्ध है। जो लोग कहते हैं कि-"पृथ्वी आदि में घटादि के साथ केवल संस्थानशब्दवाच्यतारूप ही समानता है, वास्तव में उन दोनों में संस्थान जैसा कोई अनुगत समान धर्म नहीं है / घटादि में संस्थान अवश्य है,
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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