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________________ 384 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 घट-प्रासादादेस्तस्य रचनाविशेषस्य कर्तृ पूर्वकत्वप्रतिपत्तिः / पृथिव्यादेस्तु संस्थानं कदाचिदपि कर्तृपूर्वकं नावगतम् , नापि तादशं धर्म्यन्तरे दृष्टकर्तृक इव पटादौ, तत् पृथिव्यादिगतस्य संस्थानस्य वैलक्षण्यात् ततो न तत: कर्तृ पूर्वकत्वप्रतिपत्तिः, एवं हेतोरसिद्धत्वेन नैतत्साधनम् / अयुक्तमेतत् , यतो यद्यनवगतसम्बन्धान प्रतिपत्तृनधिकृत्य हेतोरसिद्धत्वमुच्यते तदा धूमादिष्वपि तुल्यम् / अथ गृहीताऽविनाभावानामपि कार्यत्वदर्शनात् तन्वादिषु ईश्वरादिकृतत्वप्रतिभासानुत्पत्तेरेवमुच्यते / तदसत् , ये हि कार्यत्वादेर्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन गृहीताविनाभावास्ते तस्मादीश्वरादिपूर्वकत्वं तेषामवगच्छन्त्येव / तस्माद् व्युत्पन्नानामस्त्येव पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्व-कार्यत्वादेहेंतोमिधर्मताऽवगमः, अच्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति। ___ अपि च, भवतु प्रासादादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्य लक्षण्यं. तथापि कार्यत्वं शाक्यादिभिः पृथिव्यादीनामिष्यते, कार्य च कर्तृ-करणादिपूर्वकं दृष्टम् , अतः कार्यत्वाद. बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वानुमानम् / अथ कर्तृ पूर्वकस्य कार्यत्वस्य संस्थानवत्त्वस्य च तद्वैलक्षण्यान ततः साध्यावगमः / अत एवाधिष्ठातृभावाभावानुवृत्तिमद् यत् संस्थानं तद्दर्शनात् कर्बदशिनोऽपि तत्प्रतिपत्तियुक्तेपृथ्वी आदि में नहीं है ।"-उन लोगों के मत में केवल संस्थानरूप अनुगत अर्थ का ही अभाव है, इतना ही नहीं, अपितु धूमादि में भी पूर्वापरव्यक्ति अनुगत कोई भी समान धर्म नहीं होना चाहिये / तात्पर्य, संस्थान को अनुगत न मानने पर धूमत्वादि को भी अनुगतरूप से नहीं मानने की आपत्ति होगी। [ हेतु में असिद्धि दोष की शंका का समाधान ] शंका:-धूमादि में तो पूर्वापरव्यक्ति में समानता के दर्शन बल से उत्थित कल्पना के निमित्त रूप में धूमत्वादि अनुगत धर्म को कहा जाता है / यहाँ घटादि और पृथ्वी आदि में ऐसी कोई समानता की प्रतीति नहीं होती जिसके बल से अनुगत अर्थ की कल्पना की जा सके / देखिये-वत्तमान में उत्पन्न होने वाले किसी एक घट में विशिष्ट रचना (यानी संस्थान) को साक्षात् कर्तृप्रेरित देख कर, जिस पूर्वोत्पन्न घट-भवन आदि में पूर्वदृष्ट घटादितुल्य रचनाविशेष को देखते हैं किन्तु उसके कर्ता को नहीं देखते हैं वहाँ कर्त प्रेरणा की अनुमिति की जाती है। कारण, पूर्वदृष्ट घट में कर्तपर्वकत्व को साक्षात् देखा है / पृथ्वी आदि के संस्थान में किसी ने भी कर्तृ प्रेरणा को नहीं देखा है / दूसरी ओर, अन्य पटादि धर्मी, जिस का कर्ता दृष्ट है, उसमें पृथ्वी आदि के समान संस्थान नहीं है / फलतः, पृथ्वी आदि का संस्थान सर्वथा विलक्षण होने से संस्थान के द्वारा कार्यत्व को सिद्ध कर के उससे कता की सिद्धि को अवकाश नहीं है। हेतु ही जब उक्तरीति से असिद्ध है तो ईश्वर का साधन नहीं हो सकता। समाधानः-यह शंका अयुक्त है / जिन लोगों को हेतु-साध्य का सम्बन्ध अज्ञात है वैसे लोगों को लक्ष्य में रख कर यदि हेतु को असिद्ध कहा जाय तब तो धूमादि में भी यह बात समान है। जिन लोगों को धूम-अग्नि का सम्बन्ध अज्ञात है उन लोगों को धूम में हेतुता भी अज्ञात होने से हेतु की असिद्धि ही भासेगी / यदि ऐसा कहें कि-जिन लोगों को कार्यत्व और कर्तृ पूर्वकत्व का सम्बन्ध ज्ञात है उन लोगों को भी शरीरादि में ईश्वरकृतत्व का प्रतिभास नहीं होता है अतः हेतु व्याप्यत्वासिद्ध होना चाहिये-तो यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि जिन लोगों को कार्यत्व का बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व के साथ अविनाभाव ज्ञात है वे कार्यत्व हेतु से शरीरादि में ईश्वरादिकृतत्व को जानते ही हैं / अतः यह
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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