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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्ष: 385 त्यस्य दूषणस्य कार्यत्वेऽपि समानत्वात् कथं गमकता ? यद्येवमनुमानोच्छेदप्रसंगः, धूमादिकमपि यथाविधमग्न्यादिसामग्रीभावाभावानुवृत्तिमत तथाविधमेव यदि पर्वतोपरि भवेत् , स्यात्ततो वह्नयाद्यवगमः / अथाऽधूमव्यावृत्तं तथावधमेव धमादि. तहि क र्यत्वाद्यपि तथाविधं पृथिव्यादिगतं किं नेष्यते ? अथ पृथिव्यादिगतकार्यत्वादिदर्शनात कशिनां तदप्रतिपत्तिः, एवं शिखर्यादिगतवह्नयाद्यदर्शिनां धूमादिभ्योऽपि तदप्रतिपत्तिरस्तु / न चाऽत्र शब्दसामान्यं, वस्त्वनुगमो नास्तीति वक्तु युक्तम् , धूमादावपि शब्दसामान्यस्य वक्तु शक्यत्वात / तन्न शाक्यदृष्टया कार्यत्वादेरसिद्धता। मानना ही होगा कि प्रबुद्ध लोगों को पृथ्वी आदि और संस्थानवत्त्व हेतु के बीच एवं पृथ्वी आदि और कार्यत्व हेतु के बीच धर्मीधर्मभाव का उपलम्भ होता ही है। जो लोग प्रबुद्ध नहीं है उन को तो प्रसिद्ध अग्नि अनुमानस्थल में धूमादि में भी हेतुता आदि का अवबोध नहीं होता। [बौद्धों के मत से भी कार्यत्व हेतु असिद्ध नहीं ] दूसरी बात यह है कि, पृथिवी आदि का संस्थान प्रासादादि के संस्थान से विलक्षण भले हो, फिर भी बौद्धादि के मत में पृथिवी आदि प्रत्येक वस्तु क्षणिक और सहेतुक होने से उसमें कार्यत्व तो माना ही जाता है / जब उसमें कार्यत्व सिद्ध है तो कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व का अनुमान भी हो सकेगा, क्योंकि जो भी कार्य होता है वह कर्तृ पूर्वक और करणादिपूर्वक ही होता है यह सर्वत्र देखा जाता है। शंका:-जैसा जैसा कार्यत्व और संस्थान कर्तृ जन्यवस्तु में देखा जाता है उन से नितान्त विलक्षण ही कार्य और संस्थानवत्ता पथ्वी आदि में दिखते हैं. अत: विलक्षण कार्यत्व और संस्था को हेतु बना कर सर्वत्र कर्तृ पूर्वकत्व-साध्य की सिद्धि कैसे शक्य होगी? [ तात्पर्य, यज्जातीय हेतु दृष्टान्त में है तज्जातीय हेतु पृथ्वी आदि पक्ष में न होने से हेतु असिद्ध है ] पृथ्वी आदिगत कार्यत्व और संस्थान विलक्षण होने से ही, जैसे संस्थान के अन्वय-व्यतिरेक, अधिष्ठाता यानी कर्ता के अन्वयव्यतिरेक को अनुसरते हैं, वैसे संस्थान को देखने पर, कर्त्ता न दिखायी देने पर भी उसकी आनुमानिक प्रतीति का होना युक्तियुक्त है। ( यानी अन्य प्रकार के संस्थान से कर्ता की अनुमिति युक्तयुक्त नहीं है ) / यही दूषण कार्यत्वस्थल मे भी समान है तो फिर कार्यत्व और संस्थानवत्त्व हेतु सर्वत्र कर्तृ पूर्वकत्व का बोधक कैसे होगा? सामाधानः-अगर संस्थानादि में ऐसी विलक्षणता को प्रस्तुत करेंगे तब तो अनुमान मात्र के उच्छेद का दोष प्रसंग होगा। कारण, धूमहेतुक अनुमान स्थल में भी ऐसा कहा जा सकेगा कि जैसा धूम अग्निआदिरूप सामग्री के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधायी है वैसा ही धूम अगर पर्वत की चोटी पर दिखायी देगा तब तो अग्नि का अनुमान बोध होना युक्तियक्त है, अन्यथा नहीं। यदि कहें कि 'पाकशाला में दृष्ट धूम और पर्वतगत धूम, दोनों में अधूमव्यावत्ति समान होने से उनमें कोई विलक्षणता नहीं है'-तो फिर पृथ्वी आदि और घटादि में रहे हुए कार्यत्वादि भी अकार्यव्यावृत्तिरूप से समान ही होने से कोई विलक्षणता नहीं है ऐसा क्यों नहीं मानते हैं ? यदि ऐसा कहें कि-'पृथ्वी आदि में कार्यत्व को देखने पर भी वहाँ कर्ता के बोध का उदय नहीं होता है अत: वहाँ कार्यत्व विलक्षण है'-तो ऐसे तो जिन लोगों को पर्वत में अग्नि का दर्शन नहीं होता है, उनको धूम देखने पर भी अग्नि का बोध मत मानीये / यदि यह कहा जाय कि-'पृथ्वीआदिगत कार्यत्वादि और घटादि
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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