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________________ 288 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथेदमेव जन्म पूर्वजन्मान्तरमन्तरेण न युक्तमिति जन्मान्तरलक्षणस्य परलोकस्य सिद्धिरिष्यते। तत् किमियमर्थापत्तिः, अथानुमानं वा ? न तावदापत्तिः तल्लक्षणाभावात् , 'दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते' [ मीमांसा० 1.1-5 भाष्य ] इति हि तस्या लक्षणं विचक्षणैरिष्यते / न तु जन्मान्तरमन्तरेण नोपपत्तिमदिदं जन्मेति सिद्धम् , मातापितृसामग्रीमात्रकेण तस्योपपत्तेः, तन्मात्रहेतुकत्वे चान्यपरिकल्पनायामतिप्रसंगात् / शक्य न होने से अनुमान का उत्थान नहीं होगा और ] यदि सामान्य को मानेंगे तो वह असंगत है क्योंकि अग्नित्व की सिद्धि से अर्थी का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा और अग्नित्व सर्वदिग्वर्ती होने से अर्थी की नियतदिग्अभिमुख प्रवृत्ति नहीं होगी। स्वार्थ और परार्थ ये भेद भी नहीं घट सकते क्योंकि दोनों त्रैरूप्य से उत्पन्न होते हैं, और इसी लिये धूलिपटल से होने वाले अग्नि के मिथ्याज्ञान वत् अप्रमाण है। तदुपरांत सभी अनुमान में प्रायः विरुद्ध और अनुमानविरोध तथा विरुद्धाव्यभिचारी ये तीन दोष उभर आते हैं, विरुद्ध यानी अपने इष्ट साध्य का विधात करने वाला-जैसे:-नैयायिक शब्द में कृतकत्व हेतु से अनित्यत्व को सिद्ध करना चाहता है किन्तु कृतकत्व हेतु शब्द में अम्बरगुणत्व का निषेधक भी है अत: नैयायिक के इष्ट का विरोधी है / तथा सभी अनुमान में अनुमानविरोध भी इसप्रकार होता है-विवक्षित साध्यधर्म धर्मी का विशेषण नहीं हो सकता क्योंकि वह मिधर्मसमुदाय के एकदेशरूप है जैसे कि धर्मी का स्वरूप / इस अनुमान से सभी अनुमान हत-प्रहत हो जाता है / तदुपरांत किसी अनुमान में विरुद्धाऽव्यभिचारी दोष भी इस प्रकार लगता है-विरुद्ध यानी प्रस्तुत साध्य का विरोधी और अव्यभिचारी यानी अपने साध्य का अविनाभावी ऐसे प्रतिपक्षी हेतु का प्रयोग करने से अनुमान सत्प्रतिपक्षित हो जाता है-जैसे: शब्द में एक ओर कोई कृतकत्व हेतु से अनित्यत्व सिद्ध करना चाहे तो अनित्यत्वरूप प्रस्तत साध्य का विरोधी नित्यत्व का अव्यभिचारी ऐ हेतु प्रयुक्त करने से पहला अनुमान प्रतिबद्ध हो जाता है"। -नास्तिकों की दिखायी हुई इस प्रतिक्रिया से 'अनुमानमप्रमाणम्' यह अनुमान भी प्रतिरुद्ध हो जायेगा। - समाधानः उपरोक्त शंका से हमारे द्वारा आपादित जो दूषणवद है उसकी हमारे ही अनुमान में उद्घोषण करना युक्त नहीं है, क्योंकि अनिश्चितार्थप्रतिपादकत्व हेतु से सभी 'अनुमान अप्रमाण है' इस प्रकार अनुमान के प्रामाण्य का बहिष्कार कर देने से हमारा अनुमान भी तदन्तर्गत मृततुल्य ही हो गया, जो मृत हो गया उसके ऊपर हमारे ही मत का अवलम्बन करके दूषणप्रहार करना यह तो मृत का ही मारणतुल्य यानी निष्फल है। सारांशः-अनुमान मात्र अप्रमाण है तो अतीन्द्रिय ऐसे परलोकादि के अस्तित्व की सिद्धि के लिये वह कैसे प्रवृत्त किया जा सकेगा ? नहीं किया जा सकता। [जन्मान्तर विना इस जन्म की अनुपपत्ति यह कौनसा प्रमाण ?] यदि जन्मान्तरस्वरूप परलोक की सिद्धि इस युक्ति से इष्ट हो कि यह वर्तमान जन्म पूर्व जन्मान्तर के विना अनुपपन्न है, तो यहाँ प्रश्न है कि यह अनुपपत्ति अर्थापत्तिप्रमाण है या अनुमान प्रमाण ? अर्थापत्ति का लक्षण यहाँ संगत न होने से वह अर्थापत्ति प्रमाण नहीं हो सकता। मीमांसक विद्वानों ने अर्थापत्ति का यह लक्षण किया है-'देखा हुआ या सुना हुआ अर्थ अन्यथा यानी साध्य
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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