________________ 202 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यज्जातीयः प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् / दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत" // [ श्लो० वा० सू० 2/113 ] पुनरप्युक्तम्येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः / स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् // [तत्त्व० 3159 ] यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंघनात् / दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः // [ श्लो० वा० सू० 2-114 ] इत्यादि / तेनाऽत्रापि-स्वतन्त्रानुमानाभिप्रायेणाश्रयासिद्धत्वादिदूषणम्. उपमानोपन्यासबुद्ध्या वाऽशेषो. पमानोपमेयभूतपुरुषपरिषत्साक्षात्करणे उपमानं प्रवर्तते-इत्यादि दूषणाभिधानं च सर्वज्ञवादिनः स्वजात्याविष्करणमात्रकमेव / अतः 'अतीन्द्रियसर्वविदो न प्रत्यक्ष प्रवृत्तिद्वारेण निवृत्तिद्वारेण वाऽभावसाधनम्' इत्यादि सर्वमभ्युपगमवादानिरस्तम् / [ श्लोकवात्तिककार के अभिप्राय का समर्थन ] श्लोकवात्तिककार ने भी 'यदि' पदार्थ के आरोपण द्वारा प्रसंग साधन में अभिप्राय रख कर यह कहा है-- __ "यदि (वेद सहित) छह प्रमाणों से सर्ववस्तुज्ञाता कोई मौजूद हो तो उसका कौन निवारण करता है ? / [तात्पर्य, यदि सर्वज्ञ माना जाय तो वह प्रत्यक्षादि छह प्रमाणों से सर्व वस्तु का ज्ञाता होने का कदाचित् मान सकते हैं-ऐसा कहने में, आखिर हमने सर्वज्ञ को मान लिया-यह बात नहीं है, अगर माना जाय तो ऐसा माना जाय-यह अभिप्राय है ] / _ "एक ही (प्रत्यक्ष)प्रमाण वाले सर्वज्ञ की जो कल्पना करते हैं ( उनके मत में तो) वह सर्वज्ञ केवल नेत्र से ही सभी रस-गन्धादि को देख लेता होगा।"[ तात्प एक ही नेत्रादिइन्द्रिय से उसकी विषयमर्यादा का अतिक्रमण करके रसादि का ज्ञान मानना युक्तियुक्त नहीं है ] __ "वर्तमान काल में जिस जाति के प्रमाण से जिस जाति के अर्थ का दर्शन उपलब्ध होता है, कालान्तर में भी वह ऐसा ही था" [ तात्पर्य, वर्तमानकालीन प्रमाणों का जैसा स्वभाव है कतिपयार्थदर्शन, यह स्वभाव भूतकाल में भी ऐसा ही था, अन्य प्रकार का नहीं ]. और भी कहा गया है-- "( भिन्न भिन्न प्रकार की ) प्रज्ञा और बुद्धि आदि से अतिशय वाले जो मनुष्य दिखायी देते हैं वे भी अतीन्द्रिय अर्थ दर्शन से सातिशय नहीं है किन्तु ( थोडे थोडे ) अन्तर से हैं" [ अत्पर्य, कोई 25-50 हाथ दूरस्थ वस्तु को देख सकता है तो कोई हजार दो हजार हाथ दूरस्थ वस्तु को देख सकता है-यही अतिशय है ] "जहाँ भी अतिशय देखा जाता है वह अपनी विषय मर्यादा का अतिक्रमण न करता हुआ ही देखा जाता है, दूरवर्ती पदार्थ का दर्शन और सूक्ष्म वस्तु का दर्शन-इस रूप में ही देखा जाता है किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय से रूप का ग्रहण होता हो ऐसा नहीं देखा जाता है। उपरोक्त से यह फलित होता है कि सर्वज्ञवादी ने हमारे प्रसंगसाधन को स्वतन्त्र अनुमानरूप झ कर जो आश्रयासिद्धि आदि दूषण कहा है, तथा अतीत अनागत पुरुषों में वर्तमानपुरुषतुल्यता