________________ 372 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 इयांस्तु विशेषः कस्यचिद्धेतोर्व्याप्तिविषयदर्शनाय धर्मिविशेषः प्रदर्श्यते, अस्य तु 'यत् सत् तत् क्षणिकं' इतिर्धामविशेषाऽप्रदशनेऽपि धर्मिमात्राक्षेपेण व्याप्तिप्रदर्शनम् / तच्च सत्त्वं क्वचिद् व्यवस्थितमुपलभ्यमानं क्षणिकताप्रतिपत्त्यंगम् , अतः पक्षधर्मताऽप्यत्रास्ति, न चात्रैवम् / . ___ अत्राप्येनमेव न्यायं केचिदाहः / कथम् ? तत्र हि व्यापकस्य क्रमयोगपद्यस्य निवृत्त्या विपक्षात् तन्निवृत्तिः अत्रापि प्रमातृनियतताया व्यापिकाया अभावाद् विपक्षात प्रतिसंधानलक्षणस्य हेतोनिवृत्तिः / अथ तत्र बाधकप्रमाणस्य व्याप्तिः प्रत्यक्षेण निश्चीयते क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकरणस्य प्रत्यक्षेण . निश्चयात् , अत्र तु कथम् ? अत्रापि प्रमातृनियमपूवकत्वेन स्वसन्तान एव प्रतिसंधानस्य व्याप्तिनिश्चयात् कथं न तुल्यता ? किये गये सत्त्व हेतु का जो साध्यधर्मी में साध्यधर्म क्षणिकत्व के साथ व्याप्तत्वरूप से ग्रहण होता है उसीको आप साध्य क्षणिकत्व का ग्रहण दिखाते हैं। ऐसा कोई द्वैविध्य सिद्ध नहीं है कि कोई एक .. साध्य का निश्चय व्याप्तिनिश्चय से भिन्नकालीन हो और दूसरा समानकालीन हो जिससे कि आप सत्त्वहेतु की विपक्ष से निवृत्ति को ही क्षणिकत्व अन्वय का आक्षेपक कह सकें। [ सत्त्व और प्रतिसंधान हेतुद्वय में विशेषता] सत्त्व हेतु और अनुसंधान हेतु, इन में इतना अन्तर जरूर है कि, किसी हेतु की व्याप्ति का विषय दिखाने के लिये धर्मीविशेष का प्रदर्शन किया जाता है, जो सत् है वह क्षणिक है' इस व्याप्ति का प्रदर्शन धर्मीविशेष का प्रदर्शन किये विना भी केवल धर्मीसामान्य के निर्देश मात्र से किया जाता है। इस स्थल में सत्त्वहेतु किसी धर्म में उपलब्ध होकर क्षणिकत्व के अनुमान का अंग बनता है, इसीलिये यहाँ पक्षधर्मता का सद्भाव भी है। अनुसंधान हेतु स्थल में ऐसा नहीं है क्योंकि अनुसंधान के आधारभूत एक धर्मी आत्मा की ही यहां सिद्धि की जा रही है अतः धर्मिविशेष में या सामान्यत: किसी धर्मी में हेतु का निर्देश किये विना ही अर्थात् पक्षधर्मता के विना भी अनुसंधान हेतु से आत्मा की सिद्धि की जाती है। किन्तु यह कोई ऐसा अन्तर नहीं है जो आत्मसिद्धि में बाधक बने / [ सत्त्वहेतु और अनुसंधानहेतु में समानता-अन्यमत ] कुछ विद्वान् तो ऐसा कोई अन्तर माने विना ही सत्त्व हेतु में जैसा न्याय है उसका यहां भी साम्य दिखाते हये यह कहते हैं कि जैसे विपक्षभूत अक्षणिक वस्तु में से क्रम से या यूगपद् अर्थक्रियाकारित्वरूप व्यापक की निवृत्ति से सत्त्व की निवृत्ति मानी जाती है, तो यहाँ भी विपक्षभूत भिन्न सन्तानीय प्रतिभास में से प्रमातृनियतत्वरूप व्यापक की निवृत्ति से अनुसंधानात्मक हेतु की निवृत्ति सिद्ध होती है / यदि शंका हो कि-'स्थिर वस्तु में क्रम-योगपद्य के बाधक प्रमाण की व्याप्ति ( यानी सावकाशता) प्रत्यक्षसिद्ध है क्योंकि क्षणिक में ही क्रमयोगपद्य से अर्थक्रियाकरण का प्रत्यक्ष से निश्चय होता है। अनुसंधान स्थल में ऐसा कैसे कहोगे ?'-तो इसका उत्तर यह है कि स्वसन्तान में ही प्रमातृ नियम पूर्वक ही प्रतिसंधान होता है इस व्याप्ति का निश्चय भी स्वसन्तान में प्रत्यक्ष से सिद्ध है तो भिन्नकर्तृक सन्तान में प्रमातृनियतत्व के बाधक प्रमाण की व्याप्ति प्रत्यक्षसिद्ध क्यों नहीं होगी? अर्थात् उभय स्थान में तुल्यता है /