SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 373 अथ ब्र यात 'प्रमातृनियता' इत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः ? यदि परं भंग्यन्तरेणैककर्तृ कत्त्वं साध्यं व्यपदिश्यते तस्य प्रत्यक्षेण निश्चयाभ्युपगमे कथं बाधकप्रमाणावसेयता व्याप्तेः? नैतत् . प्रमातृनियतताग्रहणं नैककर्तृकत्वग्रहणं, सर्वे एव हि भावाः देशादिनियततयाऽवसीयमाना व्यवहारगोचरतामुपयान्ति, प्रमातुरप्यवसाय एवमेव दृश्यते-'इदानीमत्राहम्' / एवं देशाद्यसंसर्गवत् प्रमात्रन्तराऽसंसर्गोऽपि निश्चीयते / तथाहि-देशकालनिबन्धननियमवत् व्यतिरिक्तपदार्थाऽसंसर्गस्वभावनियतप्रतिभासोऽपि घटादेरिव अत्रैकत्वाऽनेकत्वनिश्चयाऽभावः / पूर्वपाक्षिकमते तस्य नानाकर्तृ केषु सन्तानान्तरेषु व्यापकस्याभावाद् विपक्षात प्रच्युतस्य प्रतिसंधानस्य क्वचिदुपलभ्यमानस्यैककर्तृत्वेन व्याप्तिः / यथा कमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकरणदर्शने नैवं निश्चय:-'कि क्षणिकैः क्रम-योगपद्याभ्यां सा क्रियते आहोस्विदन्यथा' इति, अथ च प्रत्यक्षेण बाधकस्य व्याप्त्यवसाये पश्चाद् व्यापकानुपलब्ध्या मूलहेतोर्व्याप्ति सिद्धिः; एवमेककर्तृ कत्वानवसायेऽपि प्रमातृनियततया प्रतिसन्धानस्य स्वसन्ततौ व्याप्तिनिश्चये सत्युतरकालं विपक्षे व्यापकस्य प्रमातृनियतत्वस्याभावादेककर्तृ कत्वेन प्रतिसन्धानस्य व्याप्तिसिद्धिः / एवमनभ्युपगमे 'अहम् अन्यो वा' इति प्रमात्रनिश्चये प्रमेयाऽनिश्चयादन्धमूकं जगत् स्यात् / औपचारिकस्य प्रमातृनियततया प्रतिभासविषयत्वेऽनात्मप्रत्यक्षत्वं दोषः। . [प्रमातृनियतत्व और एककत कत्व एक नहीं है ] शंकाः-'प्रमातृनियतत्व' इस शब्द का क्या अर्थ अभिप्रेत है ? प्रकारान्तर से यदि एकककत्वरूप साध्य का ही निर्देश करना है तो उसका निश्चय तो आप प्रत्यक्ष से ही दिखा रहे हैं फिर एककर्तृ कत्व की व्याप्ति का ज्ञान बाधक प्रमाण से दिखाना कैसे संगत होगा? ___समाधान:-शंका ठीक नहीं है, प्रमातृनियतत्व का ज्ञान और एककर्तृकत्व का ज्ञान अभिन्न नहीं है। प्रमातनियतत्व का अर्थ यह है कि-जैसे सभी वस्तु देश-कालनियतरूप से ज्ञात होकर व्यवहारापन्न होती हैं उसी प्रकार प्रमाता भी देश-काल नियतरूप से ही ज्ञात हो कर व्यवहारपथ में देखा जाता है, उदा०-"मैं अब यहाँ हूँ"। जैसे सभी भाव में नियतदेशकाल से अन्य देश-काल का * असंसर्ग निश्चयगोचर होता है उसो तरह प्रतिसंधान में अन्य प्रमाता का भी असंसर्ग निश्चयगोचर होता है। जैसे देखिये-घटादि में देश-कालमूलक नैयत्य की तरह भिन्न पदार्थासंसर्गस्वभावनैयत्य का जैसे प्रतिभास होता है वैसे प्रतिसंधान में भी अन्यप्रमातृ-असंसर्गस्वभावनैयत्य का प्रत्यक्ष से ही प्रतिभास होता है / इस तरह प्रमातृनियतत्व यही एककर्तृ कत्वरूप नहीं है, क्योंकि यहाँ कर्ता के एकत्व या अनेकत्व के प्रत्यक्षनिश्चय की कोई बात नहीं है। अब हम कह सकते हैं कि पूर्वपक्षी के मत में भिन्नकर्तृक अन्य संतान में प्रमातृनियतत्वरूप व्यापक का अभाव होने से विपक्षभूत भिन्नकर्तृक अन्य संतान से निवर्तमान प्रमातृनियतत्व का व्याप्य प्रतिसंधान भी विपक्षनिवृत्त हो जाने से एककर्तृकत्व के साथ क्वचिदुपलब्ध प्रतिसंधान की व्याप्ति निविघ्न सिद्ध होती है / [ एककत कत्व की प्रतिसंधान में व्याप्ति की सिद्धि ] तात्पर्य यह है कि (यथा क्रम-)-जैसे क्रम- योगपद्य से अर्थक्रियाकरण का दर्शन होता है उस वक्त यह निश्चय नहीं होता है कि यह क्रम-योगपद्य से की जाने वाली अर्थक्रिया क्षणिकभावों से की जाती है या अक्षणिक भावों से ? ऐसा निश्चय न होने पर भी प्रत्यक्ष से विपक्ष में बाधक की व्याप्ति (प्रवृत्ति) ज्ञात होने पर पीछे व्यापकनिवृत्तिमूलक मूलहेतु की व्याप्ति सिद्ध की जाती है-ठीक उसी
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy