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________________ 78 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ऽतः स्वत एव / तथाहि-यद यतः उप अनुमानं तु तादात्म्य-तदुत्पत्तिबद्धलिंगनिश्चयबलेन स्वसाध्यादपजायमानत्वादेव तत्प्रापणशाक्तयुक्त संवादप्रत्ययोदयात प्रागेव प्रमाणाभासविवेकेन निश्चीयतेऽतः स्वत एव / तथाहि जायते तत् तत्प्रापणशक्तियुक्त, तद्यथा प्रत्यक्ष स्वार्थस्य, अनुमेयादुत्पन्नं चेदं प्रतिबद्धलिंगदर्शनद्वारायातं लिङ्गिज्ञानमिति तत्प्रापणशक्तियुक्त निश्चीयत इति / मूढं प्रति विषयदर्शनेन विषयीव्यवहारोऽत्र साध्यतेः; संकेतविषयख्यापनेन समये प्रवर्तनात् / तथाहि-प्रत्यक्षेऽप्यर्थाव्यभिचारनिबन्धन एवानेन प्रामाण्यव्यवहारः प्रतिपन्नः, अव्यभिचारश्च नान्यस्तदुत्पत्तेः, सैव च ज्ञानस्य प्रापणशक्तिरच्यते / तदुक्तम्अर्थस्याऽसम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता। प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् // [ ] इति / तस्मात मूढं प्रति परतः प्रामाण्यव्यवहारः साध्यते / अनुमाने प्रामाण्यस्य प्रतिबद्धलिंगनिश्चयानंतरं स्वसाध्याऽव्यभिचारलक्षणस्य तत उत्पन्नत्वेन प्रत्यक्षसिद्धत्वात न परतः प्रामाण्यनिश्चये चक्रकचोद्यस्यावतारः / प्रत्यक्षे तु संवादात् प्रागर्थादुत्पत्तिः अशक्यनिश्चया इति संवादापेक्षवानभ्यासदशायां तस्य प्रामाण्याध्यवसितियुक्ता। [ अनुमान से स्वतः प्रवृत्तिव्यवहार की सिद्धि ] अनुमान से प्रवृत्ति होने में भी चक्रक दोष नहीं लगता। वह इस प्रकार-अनुमान भी प्रत्यक्षवत् स्वतः ही व्यवहार प्रयोजक है, क्योंकि वह तादात्म्य और तदुत्पत्ति दो संबंध से व्याप्ति वाले लिंग के निर्णय के बल पर अपने साध्य से उत्पन्न होता है, इसलिये वह साध्य-वह्नि आदि को प्राप्त कराने की शक्ति यानी उसके व्यवहार प्रयोजक सामर्थ्य से विशिष्ट ही उत्पन्न होता है एवं प्रमाणाभास रूप ज्ञान से विभिन्नरूप में स्वत: निश्चित रहता है इस लिये वहाँ संवादीज्ञान के उदय की प्रतीक्षा नहीं करनी पडती, संवादीज्ञान के उदय से पूर्व ही वह प्रमाणरूप से निश्चित रहता है इसलिये अनुमान से स्वत: ही प्रवृत्ति हो जाती है। यह नियम है कि जो जिस वस्तु से उत्पन्न होता है वह उस वस्तु की प्रापणशक्ति से युक्त होता है, जैसे प्रत्यक्ष जिस वस्तु से उत्पन्न होता है उस वस्तु की प्रापणशक्ति वाला ही वह होता है। उसी प्रकार व्याप्ति वाले लिंग के दर्शन द्वारा अपने साध्य से साध्यज्ञान अर्थात् अनुमान उत्पन्न होता है इस लिये वह भी साध्य को प्राप्त कराने की शक्तिवाला निश्चित होता है / जो इस विषय में अनभिज्ञ है उसको प्रथम विषय ज्ञात कराया जाता है और फिर तद्विषयक व्यवहार दिखाया जाता है। चकि योग्य समय पर विषय में प्रवृत्ति संकेत के विषय को व्यक्त करने के बाद ही हो सकती है। जैसे कि प्रत्यक्ष में भी प्रामाण्य का व्यवहार अर्थ के अव्यभिचार पर ही अवलम्बित है, और यहाँ अव्यभिचार तदुत्पत्ति से भिन्न नहीं है और इसी को ज्ञान की प्रापणशक्ति कहते हैं / कहा भी है "विषय का असम्भव होने पर प्रत्यक्ष होने का सम्भव ही नहीं है इस लिये जैसे प्रत्यक्ष में प्रमाणता होती है उसी रीति से व्याप्यत्वस्वभाव भी अनुमेय अर्थ के विना असम्भवित होने से अनुमान का प्रामाण्य अक्षुण्ण होता है-इस प्रकार अनुमान को प्रत्यक्षवत् व्यवहार हेतु मानने में अर्थाविनाभावित्व और उसका प्रामाण्य दोनों समान है।" उपरोक्त रीति से, अनभिज्ञ के प्रति परत: प्रामाण्य व्यवहार सिद्ध किया जाता है। अनुमान में साध्याविनाभावित्व असिद्ध भी नहीं है क्योंकि व्याप्तिविशिष्ट लिंग निश्चय के बाद साध्य से ही अनुमानोत्पत्ति होने से स्वसाध्याव्यभिचार रूप प्रामाण्य प्रत्यक्ष से सिद्ध है-इस लिये परतः प्रामाण्य
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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