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________________ . 430 सम्मतिप्रकरण-नयकापड..१ [प्रसंगतः समवायसमीक्षा] .: ... अथ 'ततस्तज्ज्ञानस्य भेदेऽपि संबन्धस्य समवायरूपस्य भावान्नायं दोषः' / असदेतत्-समवाय स्यानुपपत्तेः। तथाहि-A कि सतां समवायः ? B आहोस्विद् असताम् ? इति / तत्र यदि A असतामिति पक्षः, स न युक्तः, शशविषाण-व्योमोत्पलादीनामपि तत्प्रसंगात / अथात्यन्तासत्त्वात् तेषां न तत्प्रसंगः। ननु तदात्मतज्ज्ञानयोरत्यन्ताऽसत्त्वाभावः कुतः ? 'तत्समवायादी'ति चेत् ? इतरेतराश्रयत्वम्-सिद्धे तत्समवाये तयोरत्यन्ताऽसत्त्वाभावः , तदभावाच्च तत्समवाय इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / अथ B सतां समवायः / ननु तेषां समवायात प्राक कुतः सत्त्वम् ? यदि अपरसमवायात, तदसव, तस्यैकत्वाभ्युपगमात् / अनेकत्वेऽपि यद्यपरसमवायात्प्राक् तेषां सत्त्वम् , सम (तत्सम) वायादपि प्रागपरसमवायात् तेषां सत्त्वमभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्था। अथ समवायात प्राक् तेषां स्वत एव सत्त्वमिति नानवस्था; तर्हि समवायव्यतिरेकेणाऽपि सत्त्वाभ्युपगमे व्यर्थं समवायपरिकल्पनमिति 'सत्तासम्बन्धात पदार्थानां सत्ता' इत्युच्यमानं न शोभामावहति / ईश्वर में ही आधेय है, अन्य में नहीं' यह विभाजन भी दुष्कर बन जाता है। सारांश, ईश्वर का ज्ञान ईश्वरात्मा से भिन्न ( पृथक् ) होने पर 'वह ज्ञान उस का है' यहाँ षष्ठी विभक्ति से सम्बन्ध का निरूपण नहीं घट सकता। [समवाय सत्पदार्थों का, असतपदार्थो का?] पूर्वपक्षीः-ईश्वर और उसका ज्ञान भिन्न भिन्न होने पर भी दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध होने से कोई दोष नहीं है। उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है क्योंकि विचार करने पर भी समवाय की उपपत्ति नहीं होती। जैसे देखिये-समवाय किनका माना जाय, A दो सत् वस्तु का या B दो असत् वस्तु का ? यदि B दूसरा पक्ष माना जाय, तो वह युक्त नहीं, क्योंकि खरगोशसींग और गगनकमलादि असत पदार्थों में भी समवाय सम्बन्ध की आपत्ति होगी। यदि कहें कि 'ये दो अत्यन्त असत् होने से वह आपत्ति नहीं आयेगी-तो हम पूछेगे कि ईश्वरात्मा और उसका ज्ञान इन दोनों में, और * उपरोक्त युगल में (खरगोशसींग और गगनकमल में ) ऐसी क्या विलक्षणता है जिससे खरगोशसींग और गगनकमल में अत्यन्त असत्त्व को माना जाय और ईश्वरात्मादि में उसका अभाव माना जाय ? यदि सत्त्व के समवाय से उनमें अत्यन्त असत्त्व का अभाव मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा- सत्ता का समवाय सिद्ध होगा तभी उन दोनों में अत्यन्तासत्त्व का अभाव माना जा सकेगा और ऐसा अभाव सिद्ध होने पर सत्ता के समवाय की सिद्धि होगी। ___B यदि दूसरे पक्ष में दो सत् वस्तु का ही समवाय मानते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि समवाय सम्बन्ध होने के पूर्व भी वे दोनों वस्तु सत् है-तो यह प्रश्न है कि समवाय सम्बन्ध होने के पूर्व उनका सत्त्व किस तरह होगा? यदि दूसरे समवाय से मानते हैं तो वह गलत है क्योंकि आपके दर्शन में समवाय को एकव्यक्तिरूप ही माना है। कदाचित् उसे अनेकव्यक्तिरूप मानेंगे तो भो यहाँ निस्तार नहीं है क्योंकि यदि वस्तु का पूर्व सत्त्व द्वितीय समवाय से मानेगे तो द्वितीय समवाय के पूर्व में भी वस्तु का सत्त्व ततीय समवाय से मानना पडेगा, फिर तो तीसरा-चौथा....इस प्रकार कहीं अन्त ही नहीं होगा। यदि कहें कि-'समवायसम्बन्ध होने से पहले वस्तु की सत्ता स्वतः होती
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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