________________ 556 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 णात, न हि अयं 'महान शब्दः' इत्यवस्यन 'इयान' इत्यवधारयति यथा द्रव्यान्तराणि बदराऽऽमलक-- बिल्वादीनि--इति वक्तु शक्यम् , यतो वक्तव्यमत्र का पुनरियं शब्दस्य मन्दता तीव्रता वा ? अवान्तरजातिविशेषः, कथम् ? "गुणवृत्तित्वात् शब्दत्ववत् / एतदेवोक्तं भगवता परमषिणोलक्येन "गुरणे भावाद् गुणत्वमुक्तम्" [ वैशे 1-2-1-14 ] / अस्थायमर्थः-- यो यो गुणे वर्तते स स जातिविशेषः यथा गुणत्वमिति ।"--असदेतत्-यतः कथं शब्दस्य गुणत्वसिद्धिर्येन तत्र वर्तमानत्वाज्जातिविशषत्वं मन्दत्वादेः ? अद्रव्यत्वादिति चेत् ? तदपि कथम् अल्पमहत्त्वपरिमारणाऽसम्बन्धात् सोऽपि गुणत्वात् / ननु तदेव पूर्वोक्तं चक्रकमेतत् / . 'न गुणत्वात्तस्याल्प महत्त्वपरिमाणाऽसम्बन्धं ब्रमः येनायं दोषः स्यात् . अपि तु द्रव्यान्तरवदियत्तानवधारणात' इति चेत? न, वायोरियत्तानवधारणेऽप्यल्प-महत्त्वपरिमाणसम्बन्धसः ही हेतु मानते रहने में अन्त कहाँ होगा ? निष्कर्ष, अभिघात का हेतु स्पर्शवान् शब्द ही है और स्पर्शवत्त्व हेतु से ही शब्द में गुणवत्त्व की सिद्धि भी निर्बाध है / [ परिमाण से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि ] शब्द में अल्पपरिणाम और महत्परिमाण के सम्बन्ध से भी द्रव्य सिद्ध हो सकता है / 'यह शब्द अल्प है, यह महान् है' (=अमुक व्यक्ति का घोष छोटा है अथवा मोटा है) ऐसी प्रतीति से अल्प और महत्परिमाण शब्द में सिद्ध होता है / यदि कहें--'यह इतना है' इस प्रकार इयत्ता का अवधारण द्रव्यों में जैसे होता है वैसा शब्द में नहीं होता है / अतः अल्प--महान् उल्लेख से सिर्फ शब्दगत मन्दता और तीव्रता का ही ग्रहण सिद्ध होता है, परिमाणगुण का नहीं। 'शब्द अणु है--अल्प है मन्द है' इस प्रकार शब्दगत मन्दत्वधर्म का ग्रहण होता है और 'शब्द बड़ा है, पटु है, तीव्र है' -इस प्रकार शब्दगत तीव्रता धर्म का ग्रहण होता है / अर्थात् परिमाण का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि 'शब्द इतना है' ऐसा अनुभव नहीं होता है / 'शब्द बड़ा है' ऐसा अनुभव करने वाला 'इतना है' ऐसा नहीं दिखाता है, बेर-आमले-बिल्व आदि अन्य द्रव्यों के लिए तो यह इतना बड़ा है' ऐसा प्रयोग सब लोग करते हैं। यह कथन भी न बोलने जैसा ही है। क्योंकि शब्द में मन्दता या तीव्रता परिमाणरूप नहीं है तो और क्या है यह तो कहिये / यदि अवान्तर जातिविशेषरूप है तो वह भी कैसे ? यदि यहाँ ऐसा उत्तर किया जाय कि--"मन्दता तीव्रता धर्म शब्दत्व को तरह गुण में रहते हैं अत: शब्दत्व के जैसे अवान्तर सामान्यरूप हैं / भगवान् उलूक महर्षि ने भी ऐसा कहा है कि-'गुण में रहता है इसलिये गुणत्व को ( सामान्यात्मक ) कहा।' [ वैशे० 1-2-14 ] - इसका अर्थ ऐसा है--जो धर्म गुण में रहता है वह जातिविशेषरूप है,卐उदा० गुणत्व ।"--किन्तु यह उत्तर गलत है, शब्द में गुणत्व ही कहाँ सिद्ध है जिसके दृष्टान्त से उसमें वर्तमान मन्दतादि धर्म को जातिवशेषरूप कहा जाय? यदि अल्पमहत्परिमाण का सम्बन्ध न होने से उसको गुण कहेंगे तो उस परिणाम के सम्बन्ध को भी गुणत्व के आधार से ही सिद्ध करना होगा, फलतः वही पूर्वोक्त चक्रक दोष आवत्तित होगा। चन्द्रानन्दवृत्तौ ‘गुणेषु गुणानामवृत्तेः गुणत्वं च गुणेषु वर्तते, तस्मान्न गुणः' इति व्याख्यातमिदं सूत्रम् / उपस्कारकर्तृकवृत्तौ च गुणेष्वेव भावात् समवायात् गुणत्वं द्रव्य-गुण-कर्मभ्यो भिन्नं सत्तावदेवोक्तमित्यर्थः' इति व्याख्यातम् / प्रतात्पर्य यह है कि गुण या क्रिया में जो अखण्ड भावात्मक धर्म होता है वह द्रव्यादिरूप न घट सकने से परिशेषात् जातिरूप माने जाते हैं यदि कोई बाध न हो।