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________________ 608 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 येऽपि प्रतिपेदिरे "मेघादिना सवितृप्रकाशः, सविता वा स्वप्रकाश एवाऽऽच्छाद्यते" तेऽपि न सम्यक संचक्षते / न स्वप्रकाशस्य मेघादिनाऽऽवरणम , आवतत्वे हि तेनाहोरात्रयोरविशेषो भवेत दृश्यते च विशेषः, तस्मान्न कस्यचित् स्वप्रकाशस्यावृतिः / अपि च, मेघादेस्ततोऽर्थान्तरत्वादावारकत्वं युक्तम् , अविद्यायास्तु तत्त्वाऽन्यत्वेनाऽनिर्वचनीयत्वेन तुच्छस्वभावत्वात् न स्वप्रकाशस्वभावे आनन्दे आवरणशक्तिः / तत् सर्वदा स्वप्रकाशानन्दानुभवप्राप्तिः धर्माऽधर्मजनिताभ्यां च सुख-दुःखाभ्यां सह युगपत् संवेदनं प्रसक्तम् , न चैतद् दृश्यते, तस्मान्न पूर्वो विकल्पः / B नाप्युत्तरः, प्रतिपादकस्य प्रत्यक्षादेनिषिद्धत्वात् बाधकस्य च प्रदर्शितत्वात् / अतस्तत्प्रतिपादक आगमः प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वाद् गौणत्वेन व्याख्यायते शास्त्रदृष्टविरुद्धान्यवाक्यवत् / एतच्चाभ्युपगम्योक्तम् , न तु सुखस्य बोधस्वभावताऽपि विद्यते, तत्स्वभावतानिराकरणात् / जीव को अनुभव में आने वाले सुख का निषेध नहीं है। [ द्रष्टव्य वात्स्या० भा० 4-1-56 और न्यायवा० 1-1-21] / अतः पूर्व पक्षी ने प्रकृत सुख के प्रकरण में जो दोषारोपण किया है। वह हमारी मान्यता के ऊपर नहीं किन्तु हमें अमान्य सिद्धान्त के ऊपर ही हया। हमारा मत तो यह है कि सुख शब्द का प्रतिपादन सिर्फ सुख के लिये ही नहीं समस्त दुःखाभाव के लिये (भी) होता है, क्योंकि सीर्फ सुख में ही सुखशब्द का प्रयोग प्रमाण से सिद्ध नहीं है / जब दुःखाभाव के लिये भी सुख शब्द का प्रयोग होता है तो आगम में जो सुख शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है वह औपचारिक यानी दुःखाभाव विषयक भी माना जा सकता है, क्योंकि मुक्तात्मा को नित्य सुख की अभिव्यक्ति मानने में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण तो निषिद्ध ही है, सिर्फ आगमप्रमाण ही बचता है। निष्कर्ष, प्रत्यक्ष और अनुमान से स्वतंत्र (मुख्य) नित्य सुख की सिद्धि न होने से तथा आगम से गौण सुख का प्रतिपादन होने से अब नित्य सख की संभावना नहीं रहती। तथा नित्यसुख को मानने में दो विकल्प हैं-A नित्यसुख क्या स्वयंप्रकाशी आत्मस्वरूप है B या आत्मस्वरूप से भिन्न एवं अन्यप्रमाण से बोध्य है ?A प्रथम विकल्प में आत्मस्वरूप का जैसे सदा संवेदन होता है वैसे नित्य स्वप्रकाश सख का भी सदा ही संवेदन होता रहेगा, फलतः संसार दशा में भी नित्यसुख की अनुभूति होने पर बद्ध और मुक्त दशा में कुछ भी फर्क नहीं रहेगा। कदाचित् ऐसा कहें कि-नित्यसुख स्वप्रकाश होने पर भी अनादिकालीन अविद्या से आच्छादित होने के कारण संसारी जीव को उसका सदा संवेदन नहीं होता है / जब उद्यम से अनादि अविद्यातत्त्व का विनाश होगा तब आवरण के न रहने से स्वप्रकाश आनंद की अनुभूति मुक्त दशा में होने लगेगी। किन्तु यह बात ठीक नहीं, जो अप्रकाशस्वरूप हो उसो का आच्छादन न्याययुक्त है किन्तु जो स्वप्रकाशमय है उसका दूसरे से आच्छादन कैसे होगा ? [ स्वप्रकाशवस्तु के आवरण की असंगति ] स्वयंप्रकाशी नित्य सुख के आवरण के समर्थन में जिन लोगों ने ऐसा कहा है कि मेवादि से सर्यप्रकाश अच्छादित होता है अथवा स्वयं प्रकाशी सूर्य आच्छादित होता है वे ठीक नहीं कहते क्योंकि स्वप्रकाश वस्तु का मेघादि से आवरण होता ही नहीं है / यदि प्रकाश ही सूर्य का आवरण होगा तो दिवस और रात्रि में कुछ फर्क ही नहीं रहेगा। फर्क तो दिखता ही है, अत: स्वप्रकाश किसी भी वस्तु का आवरण होना संगत नहीं है / कदाचित् आप मेघ को आवारक मानने का आग्रह करें तो
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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