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________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 601 यच्चोक्तम्--सुखरागेण प्रवृत्तस्य मुमुक्षोर्यथा बन्धप्रसंगः तथा द्वेषनिबन्धनायामपि प्रवृत्ताववश्यम्भावी बन्धः' तदयुक्तम्-मुमुक्षोhषाभावात् , स हि विषयाणां तत्त्वदर्शी तेष्वारोपितं सुखत्वं तत्साधनत्वं वा तत्त्वज्ञानाभ्यासादन्यथा प्रतिपद्यते / एवं च तस्याऽऽरोपिताकारमिथ्याज्ञानव्यावृत्तावुत्तरोत्तरकार्याभावादपवर्ग उच्यते, न तु तस्य दु.खसाधने द्वेषः, किन्त्वारोपिते सुखे तत्साधने वा तत्त्वज्ञानाभ्यासाद् रागाभावः / न च स एव द्वेषः, तस्य रागाभावसव्यतिरेकेण प्रत्यक्षेण स्वरूपसंवित्तः, अन्यथोपेक्षणीये वस्तुनि रागाभावे द्वेषः स्यात् , न चैतद् दृष्टम् , तस्मान्न मुमुक्षोद्वेषनिबन्धना प्रवृत्तिः / भवतु वा, तथापि न तस्य बन्धः, द्वेषो हि स बन्धहेतुर्य उत्पन्न: स्वविषये वाग्-मन:-कायलक्षणां शास्त्रविरुद्धां पुरुषस्य प्रवृत्ति कारयति, तस्य शास्त्रविरुद्धार्थाचरणेऽधर्मोत्पत्तिद्वारेण शरीरादिग्रहणम् तन्निबन्धनं च दुःखम् / अयं तु मुमुक्षोविषयेषु द्वेष: सकलप्रवृत्तिप्रतिपन्थित्वाद्धर्माधर्मयोरनुस्पत्तौ शरीराद्यभावान्न केवलं न बन्धाय किंतु स्वात्मघाताय कल्पते / तदिदमुक्तम्-“प्रहाणे नित्यसुखवह युक्त हो सकता है क्योंकि वह सूर्य से भिन्न वस्तु है जब कि अविद्या का तो आप आनन्दमय ब्रह्म से भिन्न या अभिन्न रूप में निर्वचन ही नहीं कर सकते, अत: उस तुच्छस्वभाववाली अविद्या में स्वप्रकाशस्वरूप आनंद का आवरण करने की शक्ति को मानना असंगत है। इस प्रकार यदि नित्य सुख स्वप्रकाश आत्मस्वरूप माना जाय तो सदा ही स्वप्रकाश सुख के अनुभव की आपत्ति लगी रहेगी और धर्माधर्म से जनित सुख-दुःख का उसके साथ सहसंवेदन एक साथ होने की आपत्ति भी लगी रहेगी। सदा नित्यसुख को अनुभूति या नित्य सुख के साथ सांसारिक सुख या दुःख की सहानुभूति कहीं भी दृष्ट नहीं है, अतः पहला विकल्प युक्त नहीं। . दूसरा विकल्प ( प्रमाणान्तरबोध्य आत्मभिन्न नित्य सुख-यह ) भी अयुक्त है क्योंकि उसको सिद्ध करने वाला कोई प्रत्यक्षादि प्रमाण तो है नहीं और उसको मानने पर जो बाधक आपत्ति है (सह-अनुभूति आदि) वह दिखायी गयी है। इसीलिये, नित्य सुख का प्रतिपादक जो भी आगमवाक्य है वह प्रत्यक्षादिप्रमाण से विरुद्धार्थ का प्रतिपादक होने से, नित्यसुख बोधक आगमवाक्य का विवरण उपचरितार्थ परक (यानी दुःखाभावपरक) करना होगा। जैसे कि दृष्ट वस्तु से विरुद्ध अन्य आगम वाक्यों का अर्थविवरण उपचार से करना पड़ता है। ऊपर जो स्वप्रकाश सुख की बात हुयी है वह भी हमने अभ्युपगमवाद से की है वास्तव में तो सुख में बोधस्वभावता भी नहीं है क्योंकि हमारे मत में तो सुख में ज्ञानस्वभावता का निराकरण किया गया है / [ मुमुक्षुप्रवृत्ति द्वेषमूलक नहीं होती] - यह जो कहा है-नित्य सुख के राग से प्रवृत्ति करने वाले मुमुक्षु को जैसे बन्ध की आपत्ति दिखायी जाती है वैसे द्वेषमलक प्रवत्ति करने वाले को भी बन्ध अवश्यमेव होने की आप वह अयुक्त है, क्योंकि मुमुक्षु को द्वेष होता ही नहीं। मुमुक्षु मनुष्य तो विषयों के तत्त्व (हानिकरत्व) को जानता है, यह भी जानता है कि विषयों में आरोपित सुखत्व या सुखसाधनत्व है, अतः तत्त्वज्ञान के अभ्यास से उसे यह पता चल जाता है कि विषयसमूह वास्तव में सुख से विपरीत यानी दुःखरूप अथवा दुःख का ही साधन है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान से आरोपितआकारवाले मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर उत्तरोत्तर मिथ्याज्ञान के कार्यों की परम्परा भी रुक जाने पर आखिर जीव का मोक्ष हुआ ऐसा कहा जाता है / इस प्रकार मोक्षार्थी की प्रवृत्ति करने वाले को दु.ख के साधनों में द्वेष होने
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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