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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 रागस्याऽप्रतिकूलत्वम् / नास्य नित्यसुखाभावः ( नित्यसुखभावः ) प्रतिकूल इत्यर्थः / यद्येवं मुक्तस्य नित्यं सुखं भवति अथापि न भवति, नास्योभयोः पक्षयोर्मोक्षाधिगमाभावः" [ वात्स्या० भा० 1.1-22 ] अनेन च भाष्यवाक्येन न मुक्तस्य नित्यसुखसंवित्तिरुपेयते-तस्याः प्रमाणबाधितत्वात्-किन्तु सर्वथा यदर्थ शास्त्रभारब्धं तस्योपपत्तिरनेन प्रतिपाद्यते, वाक्यस्वाभाव्यात् / तद्धि किश्चिद्वस्त्वभिधानवृत्त्या प्रतिपादयदपि तात्पर्यशक्तेरन्यत्र भावान्न श्रयमाणार्थपरं परन्यायविद्धिः परिगह्यते, विषभक्षणादिवाक्यवत् / तन्न परमानन्दप्राप्तिर्मोक्षः। . नापि विशुद्धज्ञानोत्पत्तिः, रागादिमतो विज्ञानात् तद्रहितस्य तस्योत्पत्तेरयोगात् / तथाहियथा बोधाद बोधरूपता ज्ञानान्तरे तद्वद् रागादिरपि स्यात् , तादात्म्यात् , विपर्यये तदभावप्रसंगात् / न च विलक्षणादपि कारणाद विलक्षणकार्यस्योत्पत्तिदर्शनात् बोधाद् बोधरूपतेति प्रमाणमस्ति / अत एव ज्ञानान्तरहेतुत्वे न पूर्वकालभावित्वं समानजातीयत्वमेकसन्तानत्वं वा हेतुः, व्यभिचारात् / तथाहि-पूर्वकालत्वं तत्समानक्षणैः समानजातीयत्वं च सन्तानान्तरज्ञानैर्व्यभिचारीति / तेषां हि पूर्वः . कालत्वे तत्समानजातीयत्वेऽपि न विवक्षितज्ञानहेतुत्वमिति / एकसन्तानत्वं चात्यज्ञानेन व्यभिचरतीति / की बात ही नहीं है। सिर्फ इतना ही है कि आरोपित सुख में या उसके साधन में तत्त्वज्ञान के अभ्यास से राग नहीं होता। राग का न होना यही द्वेष के स्वरूप का संवेदन प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है / यदि रागाभाव को ही द्वेष कहेंगे तो अपेक्षणीय आकाशादि पदार्थों में किसी को राग न होने से द्वेष का सद्भाव मानना होगा, किन्तु ऐसा कोई कहता नहीं कि 'अमुक को आकाश में द्वेष है'। अत: यह फलित होता है कि मुमुक्षु की प्रवृत्ति द्वेषमूलक नहीं होती। [ मुमुक्षु में द्वेषसत्ता होने पर भी बन्धाभाव ] कदाचित् मुमुक्ष की प्रवृत्ति को द्वेषमूलक मान ले तो भी कोई बन्ध की आपत्ति नहीं है / कारण, वही द्वेष बन्धहेतु हो सकता है जो उत्पन्न हो कर शास्त्रविरुद्ध कायिक-वाचिक या मानसिक प्रवृत्ति करावे / यदि जीव शास्त्रनिषिद्ध अनुष्ठानों का आचरण करेगा तो उससे अधर्म की उत्पत्ति द्वारा शरीर का ग्रहण भी होगा, और तन्मूलक दुःख भी भोगना होगा। जब कि यहाँ मुमुक्षु को सर्व विषयों में द्वेष है वह तो प्रवृत्तिमात्र का विरोधी होने से धर्म की या अधर्म की उत्पत्ति को अवकाश न होने से शरीर ग्रहण का हेतु नहीं होगा। इसलिये विषयद्वेष सिर्फ बन्ध का हेतु ही नहीं होगा, इतना ही नहीं किन्तु अन्ततोगत्वा वह अपना भी नाशक ही होगा। जैसे कि भाष्यकार ने कहा है"प्रहाण में (मोक्ष में) नित्यसुख का राग अप्रतिकूल है। इसका अर्थ यह है कि मुमुक्षु को नित्यसुख का ( भाव या ) अभाव प्रतिकूल नहीं है। ( ऐसा यदि पूर्वपक्षी कहें तो उसके ऊपर भाष्यकार कहते हैं कि ) तब मुक्तात्मा को नित्य सुख होवे या न होवे-दोनों पक्ष में मोक्षप्राप्ति का अभाव ही प्रसक्त होगा।"-इस भाष्यवाक्य से यह फलित नहीं होता कि भाष्यकार को मुक्ति में नित्यसुखसंवेदन का होना मान्य है, क्योंकि मुक्ति में नित्यसुखसंवेदन प्रमाणबाधित है। इस भाष्यवाक्य से तो जिस के लिये शास्त्रप्रणयन किया जा रहा है उसको उपपत्ति संगति कैसे होती है यही दिखाना है, क्योंकि वाक्यस्वभाव ही ऐसा है / वाक्य का स्वभाव ऐसा है कि अभिधानवृत्ति (नामक सम्बन्ध) से किसी एक अर्थ का प्रतिपादन करता हुआ भी वह तात्पर्यशक्ति से अन्य ही किसी अर्थ का प्रतिपादन करता
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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