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________________ 60 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नापि मनोव्यापारजेन प्रत्यक्षेण, एवंविधस्यानुभवस्याभावात् / नापि तयोरुत्पादकस्य ज्ञातृव्यापाराख्यस्य यथार्थत्वनिश्चायकत्वं प्रामाण्यं बाह्यन्द्रियजन्येन मनोजन्येन वा प्रत्यक्षेण निश्चीयते, तेन सहेन्द्रियाणां सम्बन्धाभावात् / न चेन्द्रियाऽसम्बद्धे विषये ज्ञानमुपजायमानं प्रत्यक्षव्यपदेशमासादयतीत्युक्तम् / प्रामाण्य जब विना कारण ही उत्पन्न होगा तब तो जिस किसी भी देश-काल में और जैसा-तैसा अनियतस्वभाववाला उत्पन्न होना चाहिये / B यदि दसरा विकल्प ले कर प्रामाण्यनिश्चय निमित्तसापेक्ष मान लिया जाय तब यह प्रश्न होगा कि वह निमित्त कौन सा है ? B1 क्या वह स्वयं ही निमित्त है या B1 कोई अन्यनिमित्त है ? वहां स्वनिमित्तक निश्चय नहीं बन सकता / क्योंकि मीमांसक मत में प्रमाण ज्ञान को स्वसंविदित-स्वसंवेद्य नहीं किन्त ज्ञाततालिंगक अनमिति ग्राह्य माना गया है। यदि आप प्रमाण निश्चय को स्वनिमित्तक कहते हैं तो इसका तात्पर्य यही हुआ कि प्रमाण स्वसंवेद्य है / अब अगर स्वान्यनिमित्तक कहें-तब यह बताईये कि प्रामाण्यनिश्चय का वह अन्यनिमित्त कौन है, B2a प्रत्यक्ष अथवा B2b अनुमान ? तीसरा कोई प्रामाण्यनिश्चय का निमित्त यानी प्रामाण्यनिश्चायक नहीं हो सकता / यहाँ आप प्रत्यक्ष B2a को प्रमाण का निश्चायक मानें तो यह नहीं बन सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष की प्रामाण्य के निश्चय में प्रवृत्ति न तो इन्द्रियव्यापार द्वारा शक्य है, न मनोव्यापार द्वारा शक्य है / इन्द्रियसनिकृष्ट विषय में इन्द्रिय व्यापार जन्य ज्ञान ही 'प्रत्यक्ष' संज्ञा को प्राप्त करता है। किन्तु, इन्द्रिय से जो विषय का प्रत्यक्षरूप ज्ञान होता है उससे विषय ज्ञात होने से उसमें ज्ञातता उत्पन्न होती है / / है और यह ज्ञातता अपरोक्षतास्वरूप है। अब मीमांसकों का कहना है कि इस ज्ञातता से जैसे ज्ञान गृहीत (अनुमित) होता है वैसे उस ज्ञान का प्रामाण्य भी उससे गृहीत होता है, इस प्रकार प्रामाण्यनिर्णय के लिये अन्य सामग्री की अपेक्षा न रहने से प्रामाण्य स्वतः निर्णीत कहा जाता है। किन्तु यह नहीं बन सकता, क्योंकि इन्द्रिय का विषयनिष्ठ अपरोक्षता-ज्ञातता के साथ संप्रयोग यानी संनिकर्ष नहीं बन सकता / कारण, 'अर्थाऽपरोक्षता' रूप पदार्थ अर्थाऽपरोक्षज्ञान से घटित है और वह ज्ञान बाह्य न्द्रियसंनिकृष्ट नहीं है। एवं जैसे ज्ञान का भान ज्ञातता से होता है, वैसे अनुव्यवसायात्मक संवेदन से भी होने का माना जाता है। ज्ञातता के समान, जैसे इस संवेदन से ज्ञान का भान उसी प्रकार इसके साथ साथ ज्ञान निष्ठ प्रामाण्य का भी भान हो जाता है-इसलिये प्रामाण्य स्वतोग्राह्य है ऐसा यदि कहा जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि संवेदन के साथ बाह्य न्द्रिय संनिकर्ष न हो सकने से इसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, जिससे कि दोनों विकल्पों में ज्ञातता एवं संवेदन में यथार्थत्वस्वरूप प्रामाण्य इन्द्रिय व्यापार जन्य प्रत्यक्ष से निश्चित किया जा सके। [मानस प्रत्यक्ष से प्रामाण्यग्रह अशक्य ] मनोव्यापार से उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष से अर्थात् मानस प्रत्यक्ष से भी प्रामाण्य का निश्चय नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान सुखादि का जैसा आन्तरसंवेदन होता है वैसा अर्थापरोक्षता और तत्संवेदन में प्रामाण्य, का आन्तर संवेदन नहीं होता है। (नापि तयोरुत्पादकस्य....) अगर यह कहें'इन इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष एवं मानस प्रत्यक्ष से प्रामाण्य भले प्रत्यक्ष ग्राह्य न हो किन्तु इन उत्पादक ज्ञाता के व्यापार में रहा हआ यथार्थता निश्चायकत्वरूप रूप प्रामाण्य इन्द्रियजन्य अथवा मनोजन्य प्रत्यक्ष से ग्राह्य होगा'-तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि ज्ञाता के व्यापार के साथ बाह्य न्द्रिय का संबंध शक्य नहीं है / एवं मन से ज्ञातृव्यापार का जैसे अनुभव है वैसे ज्ञातृव्यापार गत प्रामाण्य
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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