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________________ प्रथमखण्ड-का०१-सर्वज्ञसिद्धिः 211 प्रथाभ्याससहायानां चक्षुरादीनामपि सर्वज्ञावस्थायामतीन्द्रियदर्शनशक्तिः / न च व्यवहारोच्छेदः-अस्मदादिचक्षुरादीनामनभ्यासदशायां शक्तिप्रतिनियमाद अस्मदादय एव व्यवहारिण इति / एतदप्यसमीचीनम् , न खल्वभ्यासे सत्यप्यन्यतो वा हेतोः कस्यचिदतीन्द्रियदर्शनं चक्षुरादिभ्य उपलभ्यते, दृष्टानुसारिण्यश्च कल्पना भवन्तीति / किं च, सर्वपदार्थवेदने चक्षुरादिजनितज्ञानात् तदभ्यासः, तत्सहायं च चक्षुरादिकं सर्वज्ञावस्थायां सर्वपदार्थसाक्षात्कारि ज्ञानं जनयतीति कथमितरेतराश्रयमेतत् कल्पनागोचरचारि चतुरचेतसो भवत इति न द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तिक्षमः। ___ अथ शब्दजनितं तज्ञानसनतु शन्दस्य तस्मीतत्वेन प्रामाण्ये सर्वपदार्थविषयज्ञानसम्भवः, तज्ज्ञानसंभवे च सर्वज्ञस्य तथाभूतशब्दप्रणेतृत्वमितीतरेतराश्रयदोषानुषङ्गः / अत एवोक्तम्-[ श्लो० वा० सू० 2-142 ] 'नर्ते तदागमत् सिध्येद् न च तेनागमो विना' / / इति / न च शब्दजनितं स्पष्टाभमिति न तज्ज्ञानवान् सकलज्ञ इत्यभ्युपगम्यते, एवं च प्रेरणाजनितज्ञानवतो धर्मज्ञत्वम् / अत एवोक्तम्"चोदना ही भूतं भवन्तं".... इत्यादि / तन्न तृतीयपक्षोऽपि युक्तिसंगतः। सकने से, मर्यादित शक्ति की महीमा से जो नियत प्रकार का कार्य-कारण भाव माना जाता है वह तूट जाने की आपत्ति आयेगी और इससे 'नेत्र से रूपज्ञान उत्पन्न होता है' इत्यादि सर्व व्यवहार उच्छेदाभिमुख हो जायेंगे। - [चक्षु आदि से अतीन्द्रिय अर्थदर्शन का असंभव ] यदि सर्वज्ञवादी की ओर से यह कहा जाय–सर्वज्ञदशा में अभ्यास की सहायता से नेत्रादि इन्द्रिय में अतीन्द्रियार्थदर्शन की शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। यहाँ 'नेत्र से रूप का ही ग्रहण होता है, रस का नहीं' इत्यादि व्यवहार के उच्छेद हो जाने की आपत्ति प्राप्त नहीं होती क्योंकि इस प्रकार के व्यवहार करने वाले तो हम लोग ही हैं और हमारी नेत्रादि इन्द्रियों को अभ्यास की सहायता न होने की दशा में उक्त शक्ति का प्रतिनियतभाव तदवस्थ ही रहता है। विरोधी : - सर्वज्ञवादी का यह कथन अनुचित है, क्योंकि यह तो निश्चय ही है कि- चाहे अभ्यासदशा हो या अन्य कोई भी हेतु हो, नेत्रादि इन्द्रिय से अतीन्द्रिय अर्थ का दर्शन किसी को भी होता हो यह देखा नहीं गया / कल्पना निरंकुश नहीं हो सकती किन्तु जैसा देखा जाय तदनुसार ही हो सकती है। दसरी बात यह है कि अन्योन्याश्रय दोष को अवकाश प्राप्त होगा जैसे, सर्वपदार्थ का ज्ञान सिद्ध होने पर उपदेश द्वारा नेत्रादिजन्य उत्तरोत्तर ज्ञान से अभ्यास सिद्ध होगा और सिद्ध अभ्यास की सहायता से नेत्रादि इन्द्रिय सर्वज्ञदशा में सकल पदार्थ को साक्षात् करने वाले ज्ञान को उत्पन्न करेगीइस प्रकार जहाँ अन्योन्याश्रय दोष है ऐसा तथ्य आप जैसे चतुर पुरुष की कल्पना का विषय कैसे हो सकता है ? निष्कर्ष अभ्यास से सकलार्थवेदि प्रत्यक्षोत्पत्ति सम्भव नहीं है। [ सर्वज्ञ का ज्ञान शब्दजन्य नहीं है ] यदि तीसरे पक्ष में, धर्मादिग्राहक प्रत्यक्षज्ञान को शब्दजन्य माना जाय तो इतरेतराश्रय दोष इस प्रकार लगेगा-सर्वज्ञ कथित होने से शब्द का प्रामाण्य सिद्ध होने पर उस शब्द से सर्वपदार्थविषयक प्रत्यक्ष ज्ञान का संभव होगा और ऐसा ज्ञान यानी सर्वज्ञता सिद्ध होने पर वह प्रमाणभूतशब्दों का उपदेशक होगा / इसी दोष का प्रतिपादन श्लोकवात्तिक में 'नर्ते तदागमात्'....इत्यादि से किया है कि
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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