________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 567 अथ गुणिनो गुणानामनर्थान्तरत्वे गुण-गुणिनोरन्यतर एव स्यात् , अर्थान्तरत्वे परपक्ष एव सथितः स्यादिति समवायः सिद्धः / कथंचिद् वादोऽपि न युक्तः अनवस्थादिदोषप्रसंगात् / अयुक्तमेतत् , पक्षान्तरेऽप्यस्य समानत्वात् / तथाहि-द्वित्वसंख्या-संयोगादिकमनेकेन द्रव्येणाभिसम्बध्यमानं यदि सर्वात्मनाऽभिसम्बध्यते द्वित्वसंख्यादिमात्रम् द्रव्यमानं वा स्यात् , एकेनैव वा द्रव्येण सर्वात्मनाऽभिसम्बन्धात न द्रव्यान्तरेण प्रतीतिः / अथैकेन देशेनैकत्र वर्ततेऽन्येनाऽन्यत्र, तेऽपि देशा यदि ततो भिन्नास्तेष्वपि स तथैव वर्त्तते इत्यनवस्था / अभिन्नाश्चेत् उक्तो दोषः / कथंचित्पक्षे परवाद एव सथितः स्यादित्यात्मना सहादृष्टस्य कथंचिदनन्यभाव एव एकद्रव्यत्वमित्यविभुत्वात् गुणानां तदव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽप्यविभुत्वमिति विपक्षसाधकत्वादेकद्रव्यत्वलक्षणस्य हेतुविशेषणस्य विरुद्धत्वम् / होगी और घट के रूपादि वस्त्र के भी हो जायेंगे। यहाँ ऐसा कहना कि-जिन लोगों को शास्त्रीयव्युत्पत्ति नहीं है उन्को तो रूपादि के आश्रय में भी उनके समवाय की प्रतीति नहीं होती और जिन को शास्त्रीयव्युत्पत्ति होती है उनको समवाय की प्रतीति होती ही है-यह उद्घोषणा करने लायक नहीं है क्योंकि इसका उत्तर पहले दे दिया है कि शास्त्रीय व्युत्पत्ति वालों को भी स्वरस से समवाय की . प्रतीति नहीं होती निष्कर्ष यही है कि 'समवाय से एक द्रव्य में रहना' ऐसा एकद्रव्यत्व अदृष्ट में, वादी प्रतिवादि उभय सिद्ध नहीं है, क्योंकि एकान्तभेदपक्ष में समवाय ही असिद्ध होने से एकद्रव्यत्व ही सिद्ध नहीं किया जा सकता। [गुण-गुणी में कथंचिद् भेदाभेदवाद से आत्मव्यापकता असिद्ध ] यदि यह कहा जाय-"गुण गुणी से अर्थान्तर रूप है या नहीं ? यदि अर्थान्तर नहीं है तब तो दो में से एक ही व्यवहारयोग्य हआ, अर्थात दूसरे का लोप हो जायेगा। यदि अथ रूप मानेंगे तब तो उन दोनों के बीच सम्बन्ध भी मानना ही पड़ेगा-इस प्रकार परपक्ष की यानी हमारे पक्ष की अनायास सिद्धि होने से समवाय असिद्ध नहीं है"-तो यह बात ठीक नहीं है / ऐसे विकल्प तो आपके पक्ष में भी समानरूप से हो सकता है। जैसे देखिये-द्वित्वसंख्या और संयोगादि जब अनेक द्रव्य के साथ सम्बद्ध होते हैं तो क्या संपूर्णरूप से सम्बद्ध हो जाते हैं या एक अंश से ? यदि संपूर्णरूप से कहेंगे तब तो द्वित्वसंख्यादि में से केवल एक ही व्यवहार योग्य रहेगा, दूसरे का विलोप होगा, अथवा घटपटगत द्वित्वादि संख्या संपूर्णरूप से एक घट के साथ सम्बद्ध हो जाने पर अन्य पटद्रव्य के साथ उसके सम्बन्ध की प्रतीति ही नहीं होगी। अगर कहें-एक देश से ही सम्बद्ध होते हैं, अर्थात् एक देश से घट के साथ और अन्य देश से पट द्रव्य के साथ सम्बद्ध होती है तो यहाँ प्रश्न होगा कि वे देश द्वित्वादि से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न होंगे तब तो उन देशों में वह द्वित्वादि संख्या सम्पूर्णरूप से सम्बद्ध हैं या एक अंश से? ऐसे प्रश्नों की परम्परा का अन्त नहीं आयेगा / यदि उन अंशों को द्वित्वादि से अभिन्न मान लेंगे तब तो पहले जो दोष कहा है वही वापस आयेगा / बचने के लिए अगर कथंचिद् भिन्नाभिन्न पक्ष का स्वीकार करेंगे तब तो परकीय पक्ष ही पुष्ट हो जाने से अदृष्ट का भी आत्मा के साथ कथंचिद् अभेदभाव मानने पर ही एकद्रव्यत्व यानी एक द्रव्य में समवेतत्व का कथन सच्चा ठहरेगा / गुणभूत अदृष्ट को तो आप विभु नहीं मानते हैं अतः उससे कथंचिद् अभिन्न आत्मा में भी अविभुत्व ही मानना पड़ेगा। इस प्रकार एकद्रव्यत्व रूप हेतुविशेषण विभुत्व के बदले अविभुत्व का साधक होने से विरुद्ध साबित हुआ।