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________________ 470 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड.. अथ 'यदि तत्र तत्कालसम्बन्ध्यनलो भवेत् तदा भास्वररूपसम्बन्धित्वात् प्रत्यक्षः स्यात्' इत्यप्रत्यक्षत्वलक्षणो दोषः। ननु 'भास्वररूपसम्बन्धित्वादनलो यदि तत्कालं स्यात् प्रत्यक्ष एव भवेत्' इत्येतदेव कुतोऽवसितम् ? 'महानसादौ तथाभूतस्यैव तस्य दर्शनात्' इति चेत् ? नन्वेवं भूरुहादावपि यदि कर्ता स्यात् तदा शरीरवान् दृश्य एव स्यात् , घटादौ कर्तु स्तथाभूतस्यैव तोपलम्भात्-इति समानं पश्यामः। अथ वृक्ष-शाखाभंगादिकार्यस्याऽदृश्यः पिशाचादिः कर्ता यथाऽभ्युपगतः, स्वशरीराऽवयवानां वाऽपरशरीरव्यतिरेकेणाऽपि यथावा प्रेरको देवदत्तादिः तथा भूरुहादिकार्यकर्ताऽदृश्यः शरीरादिरहितश्च यदि स्यात को दोषः? न कश्चिद् दृष्टव्यतिक्रमव्यतिरेकेण / तथाहि-देवदत्तादेरपि स्वशरीरावयवप्रेरकत्वं विशिष्टशरीरसम्बन्धव्यतिरेकेण नोपलब्धमित्येतावन्मात्रमेव तत्र तस्य कर्तुत्वनिबन्धनम् , नापरशरीरसम्बन्धस्तत्र तस्योपयोगी इति भूरुहादिकर्तु रपि शरीरसम्बद्धस्यैव कार्यकरणे व्यापारो युक्तः, नान्यथा / तत्सम्बन्धश्च तस्य यदि तत्कृतोऽभ्युपगम्यते तदा.शरीरसम्बन्धरहितस्य तदकरणसामर्थ्य मित्यपरशरीरसम्बन्धोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा शरीरसम्बन्धरहितस्य कथं प्रस्तुतकार्यकरणम् ? तथा, तदभ्युपगमे वाऽपरापरशरीरनिर्वर्त्तने क्षोणव्यापारत्वादीशस्य न भूरुहादिकार्यनिर्वर्तनम् / उत्तरपक्षी:-तो अरण्य में विना कृषि से उत्पन्न वृक्षादि में कार्यत्व हेतु से कर्ता का अनुमान करने में भी प्रत्यक्षविरोध तुल्य है। नैयायिकः-उस वृक्षादि के कर्ता को हम अतीन्द्रिय मानते हैं अतः कोई प्रत्यक्षविरोध सम्भव नहीं है। उत्तरपक्षीः-हम भी धूपघटिका में अतीन्द्रिय तत्कालीन अग्नि को मान लेंगे तो क्या प्रत्यक्षविरोध होगा? नैयायिकः-धूपघटिका में यदि उस काल का सम्बन्धीभूत अग्नि हो सकता तब तो वह भास्वर-. रूपवाला होने से अवश्य प्रत्यक्ष होता है, अतः अप्रत्यक्षत्वरूप दोष तदवस्थ ही है / . उत्तरपक्षीः-यह आपने कैसे जाना कि 'भास्वररूपवाला होने से अग्नि यदि उस काल में धूपघटिका में होता तो अवश्य प्रत्यक्ष ही होता' ? नैयायिक:-पाकशाला में उसी प्रकार के ही अग्नि को पहले देखा है। 'उत्तरपक्षी:-वृक्षादि का भी यदि कर्ता होता तो वह शरीरी और दृश्य ही होता क्योंकि घटादि दृष्टान्त में उसी प्रकार के कर्ता की उपलब्धि होती है-इस प्रकार दोनों जगह साम्य दिखता है। [ शरीर के विना कर्ता को मानने में दृष्टव्यतिक्रम]. . नैयायिकः-यकायक जो वृक्षभंग या शाखाभङ्ग आदि कार्य देखते हैं तब वहाँ जैसे अदृश्य पिशाचादि कर्ता को मान लेते हैं, अथवा देवदत्तादि पुरुष अन्यशरीर के विना ही अपने शरीर के अवयवों का जैसे संचालन करता है, उसी तरह वृक्षादि का शरीररहित अदृश्य कर्ता मान लेने में क्या हानि है ? उत्तरपक्षीः-दृष्ट का व्यतिक्रम होता है यही दोष है, और कोई नहीं। देखिये-देवदत्तादि पुरुष का जो स्वदेहावयवों का संचालन है वह विशिष्ट प्रकार के शरीरसंबंध विना नहीं देखा जाता
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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