________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्ष: 389 व्यतिरिक्त कारणं भवेत् ? एवमपि कारणत्वकल्पनायां दोष उक्तः 'चैत्रस्य व्रणरोहणे' [ ] इत्यादिना / तस्मात् पक्षधर्मत्वेऽपि व्याप्त्यभावादगमकत्वं हेतोः / ___ अथ तेषां पक्षेऽन्तर्भावात् न तैर्व्यभिचारः, तदसत , तात्त्विकं विपक्षत्वं कथमिच्छाकल्पितेन पक्षत्वेनाऽपोद्येत ? व्याप्तौ सिद्धायां साध्य-तदभावयोरग्रहणे वादीच्छापरिकल्पितं पक्षत्वं कथ्यते / सपक्ष-विपक्षयोहतो: सदसत्त्वनिश्चयाद व्याप्तिसिद्धिः / एवमपि साध्याभावे दृष्टस्य हेतोर्व्याप्तिग्रहणकाले व्यभिचाराऽशंकायां निश्चये वा व्यभिचारविषयस्य पक्षेऽन्तर्भावेन गमकत्वकल्पने न कश्चिद्धेतुव्यभिचारी भवेत् / तस्मान्नेश्वरसिद्धौ कश्चिद् हेतुरव्यभिचार्यस्ति। [ नैयायिक मत में दृष्टहानि-अदृष्टकल्पना ] कर्तृ पूर्वकत्व की कल्पना में यह भी एक दोष, दृष्ट की हानि और अदृष्ट की कल्पना यह दोष, सम्भव होने से पूर्वोक्त व्याप्ति अप्रसिद्ध हो जाती है। अरण्यजात वनस्पति आदि के पृथ्वी-जलादि की कारणता दृष्ट है उसका परिहार करके जो कर्ता अप्रसिद्ध है उसकी कल्पना कर लेना युक्तिसंगत नहीं है। ___नैयायिक:-कर्ता की कल्पना करने पर भी हम पृथ्वी आदि की कारणता का अपलाप नहीं करते हैं, पृथ्वी आदि को कारण मानते ही है और अरण्यगत वनस्पति के पृथ्वी आदि से अतिरिक्त . एक कर्ता की कल्पना करते हैं, तो इस में दृष्ट हानि नहीं है। पूर्वपक्षी:-यह ठीक नहीं, जो (क) जिस (ख) के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधायि हो वह (ख) उसका कारण कहा जायेगा और दूसरा (क) उसका कार्य होगा, यह सिद्धान्त है। तदनुसार अरण्य में विना खेड किये ही उत्पन्न हो जाने वाले वनस्पति आदि पृथ्वी आदि के ही अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करता है, और किसी के भी नहीं, तब पृथ्वी आदि से अधिक कर्तादि कारण कैसे हो सकता है ?! ऐसा होने पर भी यदि कर्तादि कारण की कल्पना की जायेगी तो अदृष्ट कल्पना का दोष चैत्र के घाव का संरोहण...' इत्यादि श्लोक से कहा ही है। इस कारण से, हेतु कार्यत्व में पक्षधर्मता होने पर भी व्याप्ति न होने से वह कर्ता का बोधक नहीं बन सकता। [ पक्ष में अन्तर्भाव करके व्यभिचार निवारण अशक्य ] नैयायिकः-वनस्पति आदि में कार्यत्वहेतु का व्यभिचार दिखा कर हेतु को व्याप्तिशून्य दिखाना अच्छा नहीं है, क्योंकि जहाँ जहाँ कर्ता नहीं दिखता उन सभी वनस्पति आदि का हम पक्ष में र्भाव कर लेते हैं, और पक्ष में तो साध्य को सिद्ध किया जाता है अतः पक्ष को ही व्यभिचारस्थलरूप में नहीं दिखाया जा सकता, अन्यथा धूम हेतु को भी पर्वतादि पक्ष में अग्निव्यभिचारी दिखा कर व्याप्ति शून्य कह देने पर प्रसिद्ध अनुमान का ही उच्छेद होगा। पूर्वपक्षी:-यह बात मिथ्या है, क्योंकि वनस्पति आदि स्थल में कभी किसी को कर्त्ता उपलब्ध न होने से वह तो तत्त्वभूत विपक्ष है, उसको आप अपनी इच्छानुसार कल्पना करके पक्षान्तर्भूत दिखा कर विपक्षत्व से रहित नहीं कर सकते / वादी की इच्छा से की गयी कल्पना के अनुसार पक्षता तब ही कही जा सकती है जब एक ओर हेतु में साध्य की व्याप्ति प्रसिद्ध हो, दूसरी ओर पक्षत्वेन अभिप्रेत स्थल में साध्य और उसका अभाव दोनों में से कोई भी पूर्वगृहोत न हो / व्याप्ति की सिद्धि तो