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________________ 390 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अत्राहुः नाऽकृष्टजातैः स्थावरादिभिर्व्यभिचारः, व्याप्त्यभावो वा, साध्याभावे वर्तमानो हेतुर्व्यभिचारो उच्यते, तेषु तु कर्ऋग्रहणम् , न सकर्तृकत्वाभावनिश्चयः / ननूक्तम् 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे कर्तुरभावनिश्चयस्तत्र युक्त'- नैतद् युक्तम् , उपलब्धिलक्षणप्राप्तताया: कतु स्तेष्वनभ्युपगमात् यत्तूक्तम्क्षित्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानदर्शनात तेषां, तद्व्यतिरिक्तस्य कारणत्वकल्पनेऽतिप्रसंगदोषः' इति, एतस्यां कल्पनायां धर्माधमयोरपि न कारणता भवेत् / न च तयोरकारणतैव, तयोः कारणत्वप्रसाधनात्-नहि किचिज्जगत्यस्ति यत् कस्यचिन्न सुखसाधनम् दुःखसाधनं वा / न च तत्साधनस्यादृष्टनिरपेक्षस्योत्पत्तिः। इयांस्तु विशेषः शरीरादेः प्रतिनियतादृष्टाक्षिप्तत्वं प्रायेण, सर्वोपभोग्यानां तु साधारणाऽदृष्टाक्षिप्तत्वम् / एतत् सर्ववादिभिरभ्युपगमाद् अप्रत्याख्येयम् , युक्तिश्च प्रदर्शितैव / चार्वाकैरप्येतदभ्युपगन्तव्यतान् प्रति पूर्वमेतत्सिद्धौ प्रमाणस्योक्तत्वात् / प्रमाणसिद्धं तु न कस्यचिन्न सिद्धम् / तभी हो सकती है जब सपक्ष में हेतु का सत्त्व और विपक्ष में हेतु का असत्त्व दोनों ही निश्चित रहे / यदि इस बात को न मानें, और जहाँ साध्य न होने पर भी हेतु दृष्ट है ऐसे हेतु में जिस काल में व्याप्तिग्रह किया जाता है उस वक्त किसी स्थल में व्यभिचार की शका या निश्चय प्रस्तुत किया जाय, उस वक्त यदि उस व्यभिचार स्थल का भी पक्ष में ही अन्तर्भाव करके हेतु को साध्यसाधक बताया जाय, तब तो व्यभिचारदोष का ही उच्छेद हो जाने से कोई भी हेतु व्यभिचारी नहीं कहा जा सकेगा / कारण, तप्तलोहगोलक में अग्नि धूम का व्यभिचारी है यह दिखाने पर गोलक का भी पक्ष में ही अन्तर्भाव कर लेने से अग्नि भी धूम का माधक बन जायेगा। ___निष्कर्ष:-ईश्वर की सिद्धि में कोई भी व्यभिचारी हेतु प्रसिद्ध नहीं है। [ नैयायिक के सामने पूर्वपक्ष समाप्त ] [ पूर्वपक्षो को नेयायिक का प्रत्युत्तर ] ईश्वरवादी यहाँ कहते हैं-विना खेडे ही उत्पन्न स्थावरकाय वनस्पति आदि में कोई व्यभिचार दोष नहीं है, एवं व्याप्ति भी असिद्ध नहीं है। जहाँ साध्य का अभाव रहता हो वहाँ हेतु रहे तो व्यभिचारो कहा जाता है। वनस्पत्ति आदि में यद्यपि कर्ता का ग्रहण नहीं होता फिर भी वहाँ सकर्तृकत्व के अभाव का निश्चय भी नहीं है। पूर्वपक्षोः-कर्ता उपलब्धिलक्षण प्राप्त होने पर भी उसका वहाँ ग्रहण न होने से वहाँ कर्ता के अभाव का निश्चय सिद्ध ही है- यह हमने पहले कह तो दिया है। नैयायिकः-यह बात युक्त नहीं है, वनस्पति आदि के कर्ता को हम उपलब्धिलक्षणप्राप्त मानते ही नहीं। यह भी जो कहा था-'वनस्पति आदि में पृथ्वी आदि के अन्वय व्यतिरेक का अनुविधान दिखता है अतः पथ्वी आदि से अधिक ईश्वरादि में कारणता की कल्पना करने पर अतिप्रसंग दोष होगा'-यह भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसी दोषकल्पना करने पर तो धर्म-अधर्म ( अर्थात् पुण्य-पाप ) में भी कारणता सिद्ध नहीं हो सकेगी। 'वे कारण ही नहीं यह नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें सकल कार्यों के प्रति कारणता सिद्ध है / जैसे-जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो किसी के सुख का या दुःख का कारण न हो / जो भो सुख-दुःख के कारण हैं उनकी उत्पत्ति ही अदृष्ट ( पुण्य-पाप ) के विना शक्य नहीं है। हाँ, इतनी विशेषता जरूर है, देह-इन्द्रियादि की उत्पत्ति उसके किसी एक उपभोक्ता के अदृष्ट से ही होती है किन्तु जो सर्वसाधारण उपभोग की वस्तु है-चन्द्रप्रकाश,
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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