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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृ त्वे पूर्वपक्षः 391 अथ जगद्वैचित्र्यमदृष्टस्य कारणत्वं विना नोपपद्यते इति तत् कल्प्यते, सर्वान् उत्पत्तिमतः प्रति भूम्यादेः साधारणत्वादतोऽदृष्टाख्यविचित्रकारणकृतं कार्यवैचित्र्यम् / एवमदृष्टस्य कारणत्वकल्पनायाभीश्वरस्यापि कारणत्वप्रतिक्षेपो न युक्तः, यथा कारण गतं वैचित्र्यं विना कार्यगतं वैचित्र्यं नोपपद्यते इति तत् परिकल्प्यते तथा चेतनं कर्तारं विना कार्यस्वरूपानुपपत्तिरिति किमिति तस्य नाभ्युपगमः ? न चाकृष्टजातेषु स्थावरादिषु तस्याऽग्रहणेन प्रतिक्षेपः, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाददृष्टवत् / न च सर्वा कारणसामग्र्युपलब्धिलक्षणप्राप्ता। अत एव दृश्यमानेष्वपि कारणेषु कारणत्वमप्रत्यक्षम् , कार्येणैव तस्योपलम्भात् / सहकारिसत्ता दृश्यमानस्य कारणता, केषांचित् सहकारिणां दृश्यत्वेऽप्यदृष्टादेः सहकारिणः कार्येणैव प्रतिपत्तिः, एवमीश्वरस्य कारणत्वेऽपि न तत्स्वरूपग्रहणं प्रत्यक्षेणेति स्थितम् / ततोऽनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात् कर्तु रुपलभ्यमानजन्मसु स्थावरेषु हेतोवृत्तिदर्शनाद् न व्याप्त्यभावः यतो निश्चितविपक्षवृत्तिहेतुर्व्यभिचारी। सूर्यप्रकाशादि, उसकी उत्पत्ति सर्वसाधारण अदृष्ट से होती है / सभी आस्तिकवादीयों को अदृष्ट की कारणता मान्य ही है अतः उसका प्रतिक्षेप दुःशक्य है। अदृष्ट की साधक युक्तियाँ तो बता दी गयी हैं / इसीलिये चार्वाक (नास्तिक ) वादीयों को भी यह मानना ही चाहिये, क्योंकि उनके सामने पहले ही अदृष्ट की सिद्धि में प्रमाण कह दिया है [ पृ. 246-13 ] / जो वस्तु प्रमाणसिद्ध हो वह किसी के लिये असिद्ध नहीं हो सकती। [अदृष्ट और ईश्वर की कल्पना में ] पूर्वपक्षीः-अदृष्ट की कारणता के विना जगत् का वैचित्र्य नहीं घट सकता, इस हेतु से अदृष्ट की कल्पना की जाती है / भूमि-जल इत्यादि कारण तो तभी उत्पन्न वस्तु के प्रति समान होने से कार्य का वैचित्र्य भिन्न भिन्न अदृष्टात्मक कारण से ही घट सकता है। नैयायिकः- उक्त रीति से अदृष्ट में कारणत्व की कल्पना करने पर ईश्वर में भी कारणता की कल्पना का प्रतिकार युक्त नहीं है / कार्यों का वैचित्र्य कारण के वैचित्र्य के विना नहीं घटता, इस हेतु से अदृष्ट की जैसे कल्पना की जाती है, उसी प्रकार, चेतन कर्ता के विना भी किसी कार्य का स्वरूप न घट सकने से ईश्वर का स्वीकार क्यों न किया जाय ? विना कृषि के ही उत्पन्न स्थावरकाय आदि में कर्ता का उपलम्भ न होने मात्र से उसका अस्वीकार करना ठीक नहीं, जैसे अदृष्ट उपलब्धिलक्षणप्राप्त (उपलब्धियोग्य) न होने से असका उपलम्भ नहीं होता उसी प्रकार ईश्वर कर्ता भी उपलब्धि-अयोग्य होने से उसका अनुपलम्भ बुद्धिगम्य है / जो भी कारणसामग्री हो वह उपलब्धिलक्षणप्राप्त ही होनी चाहिये ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब अदृष्ट की मान्यता ही समाप्त हो जाती है। केवल कारण ही नहीं, कारणता भी उपलब्धिलक्षणप्राप्त नहीं है, इसी लिये तो कारणों को देखने पर भी तद्गत कारणता का प्रत्यक्ष नहीं होता है, धूमादि कार्य को देख कर ही अग्नि आदि में कारणता का उपलम्भ होता है / कारणता क्या है, इतर सहकारियों की सत्ता यानी सांनिध्य- यही कारणता है, जैसे, दंड में घट की कारणता है इसका यही अर्थ है कि दण्ड को घटोत्पादक सभी सहकारीयों का सांनिध्य प्राप्त है। (इसी को सहकरिवैकल्यप्रयुक्तकार्याभाववत्त्व भी कहते हैं / ) जब कारणता सहकारीसांनिध्यस्वरूप है तो कुछ सहकारी दृश्य रूपवाले होने पर भी अदृष्टादि सहकारी दृश्य नहीं हैं, उनकी सत्ता तो कार्य से ही अनुमित होती है / तात्पर्य, अदृश्य सहकारिगत कारणता भी अदृश्य ही होती है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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