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________________ 388 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड / केषांचित् कार्याणामकर्तृ पूर्वकाणां कार्यत्वदर्शनान्न सर्व कार्य कर्तृ पूर्वकं यथा वनेषु वनस्पतीनाम् / 'अथ तत्र न कर्बभावनिश्चय: किंतु कर्बग्रहणम् तच्च विद्यमानेऽपि कर्तरि भवतीति कथं साध्याभावे हेतोदर्शनम् ?' क्व पुनविद्यमानकर्तृकाणां तदप्रतिपत्तिः ? 'यथा घटादीनामनवगतोत्पत्तीनाम् / 'युक्ता तत्र कर्तुरप्रतिपत्तिः, उत्पादकालानवगमात् , तत्काले च तस्य तत्र संनिधानम् अन्यदाऽस्य संनिधानाभाषादग्रहणम् , वनगतेषु च स्थावरेषूपलभ्यमानजन्मसु कर्तृ सद्भावे तदवगमोऽवश्यंभावी, यथोपलभ्यमानजन्मनि घटादौ, अत उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्य कर्तुस्तेष्वभावनिश्चयात् तत्र व्याप्तिग्रहणकाल एव कार्यत्वादेर्हेतोदर्शनाद् न कर्तृ पूर्वकत्वेन व्याप्तिः। ___ इतश्च, दृष्टहान्यदृष्टपरिकल्पनासम्भवात्-दृष्टानां क्षित्यादीनां कारणत्वत्यागोऽदृष्टस्य च कर्तुः कारणत्वकल्पना न युक्तिमती। अथ न क्षित्यादेः कारणत्वनिराकरणं कर्तृ कल्पनायामपि, तत्सद्भावेऽपि तस्यापरकारणत्वक्लुप्तेः / तदसत् , यतो यद् यस्यान्वय-व्यतिरेकानुविधायी तत्तस्य कारणम् , इतरत् कार्यम् / क्षित्यादीनां त्वन्वय-व्यतिरेकावनुविधत्ते तत्राकृष्टजातं वनस्पत्यादि नापरस्य, कथमतो पूर्वपक्षी:-घटनिष्ठ कायत्व में कर्तृ पूर्वकत्व दृष्ट होने पर भी उतने मात्र से व्याप्ति सिद्ध नहीं हो जाती / व्याप्ति का ग्रहण सभी देश-काल के अन्तर्भाव से किया जाता है। यहां तो आप जिस काल में कत पूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति को ग्रहण कर रहे हैं उसी काल में पृथ्वी, अंकुरादि कितने ही जन्य भावों में कर्तृ पूर्वकत्व के विना भी कार्यत्व दिखाई देता है, अत: 'कार्यमात्र कर्त पूर्वक ही होता है, यह नियम नहीं बन सकता / जैसे, जंगलों में बहुत सी वनस्पतियाँ कर्ता के विना ही ऊग निकलती है। नैयायिक:-ऐसे स्थलों में उनके कर्ता का ग्रहण नहीं होता यह बात ठीक है, किन्तु इतने मात्र से 'कर्ता ही नहीं है' ऐसा निश्चय फलित नहीं हो जाता, क्योंकि कर्ता के होने पर भी उसके अग्रहण का पूरा सम्भव है / तो फिर साध्य के अभाव में भी वहाँ हेतु कार्यत्व दिखाई देता है'-ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? पूर्वपक्षी:-'कर्ता होता है किन्तु उसका ग्रहण नहीं होता है' ऐसा कहाँ देखा ? नैयायिकः-घटादि में ही / पुरोवर्ती घटादि की उत्पत्ति किस कर्ता से कब हुयी यह हम नहीं जान सकते किन्तु उसका कर्ता होता तो जरूर है / पूर्वपक्षी:-कर्ता होने पर उसकी उपलब्धि न हो ऐसा घटादि में तो मान सकते हैं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति का काल हम नहीं जानते है / जिस काल में उत्पत्ति हुई उस काल में वहाँ कर्ता सन्निहित था, किन्तु उस काल की अपने को माहिती नहीं थी, और अन्य काल में कर्ता का सन्निधान नहीं है अत: घटादि के कर्ता की अनुपलब्धि का सम्भव है। किंतु अरण्यगत वनस्पति के लिये ऐसा नहीं है। जंगल की स्थावर वनस्पतियों का जन्मकाल तो उपलब्ध होता है, अत: यदि वहाँ कर्ता विद्यमान हो तो उसका उपलम्भ अवश्य हो सकता है। जैसे कि जिस घटादि की उत्पत्ति को हम देखते हैं उसके कत्तों को भी अवश्य देखते है / तात्पर्य, वनस्थ वनस्पत्ति का कत्तो भी यदि सम्भवित हो तो अवश्यमेव उपलब्धिलक्षण प्राप्त यानी उपलम्भयोग्य ही हो सकता है, अत एव ऐसे कर्ता का वहाँ अभाव सुनिश्चित होने से, व्याप्तिग्रहण काल में ही साध्यशून्य वनस्पति आदि स्थल में कार्यत्व हेतु के दर्शन होने से कर्तृ पूर्वकत्व के साथ उसकी व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकती।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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