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________________ 588 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ‘हुआ असदेतत् , इह जन्मनि प्राणिनां तदभिलाषस्य परलोकेऽभावान्न ततः स इति युक्तम् / नापि मनुष्यजन्मा होनशुन्यादिगर्भसम्भवमभिलषति यतस्तत्र तत्सम्भवः स्यात् / तदेवं धर्माधर्मयोस्तदात्मगुणत्वनिषेधात् तनिषेधानुमानबाधितमेतत् 'पावकार्बज्वलनादि देवदत्तगुणकारितम्' इति / यत् पुनरुक्तम् ‘गुणवद् गुणी अप्यनुमानतस्तद्देशेऽस्तीत्यनुमानबाधितस्वदेहमात्रव्यापकात्मकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेनाद्यो हेतः कालात्ययापदिष्टः' इति तदपि निरस्तम , तत्र तत्सद्धावाऽसिद्ध यच्चान्यत् 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति , तत्र किं तद्गुणपूर्वकत्वाभावेऽपि तदुपकारकत्वं दृष्टं येन 'कार्यत्वे सति' इति, विशेषणमुपादीयेत, सति सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणोपादानस्यार्थवत्त्वात् ? 'कालेश्वरादौ दृष्टमिति चेत् ? न. कालेश्वरादिकमतदगुणपूर्वकमपि यदि तदुपकारकम् , कार्यमपि किश्चिदन्यपूर्वकं तदुपकारकं स्यादिति संविग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिको हेतुः / सर्वज्ञभिज्ञा इत्यादि व्यवहार- का अवसान ही हो जायेगा। अर्थात् स्तनपान की प्रवृत्ति का भी उच्छेद हो जायेगा क्योंकि अभिनव जात शिशु को इस जन्म में तो सुखसाधनता का ज्ञान तत्काल होता नहीं है। जब वह माता के उदर में था तब तो उसे इष्टसाधनता के रूप में स्तनादि का दर्शन ही नहीं है फिर नवजात शिशु को इष्टसाधनता के स्मरणादि की बात का सम्भव ही कहाँ रहेगा ? यदि उसकी उपपत्ति करना हो तो पूर्वदेह का सम्बन्ध अनायास सिद्ध हो जायेगा। [ दर्शनादिव्यवहार से विपरीत कल्पना में वाधप्रसंग ] __ यदि यह कहा जाय-मध्यकाल में इष्टसाधनता के दर्शन से स्मरण-प्रत्यभिज्ञा द्वारा अभिलाष, और उससे प्रवृत्ति पर्यन्त व्यवहार होता है, तथापि जन्म के आदिकाल में शिशु की प्रवृत्ति विना ही अभिलाष आदि से होती है इस कल्पना में कोई बाधक नहीं है। अन्यत्र भी ऐसा दिखता है कि मेंढक से जैसे मेंढक की उत्पत्ति होती है वैसे मेंढक से सर्वथा भिन्न गोबर आदि कारण से भी मेंढक उत्पन्न होता है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसी भी सम्भावना की जा सकती है कि तृषा का विच्छेद अन्यत्र भले ही जलपान के निमित्त से होता हो किन्तु कहीं पर जलविजातीय अग्नि से भी हो सकेगा। यदि ऐसी सम्भावना को मान ली जाय तो फिर सभी कारण-कार्यव्यवहारों का उच्छेद प्रसक्त होगा। यदि ऐसा कहें कि-गर्भ में प्रवेश अन्य द्रव्य निमित्तक होने की बात ठीक नहीं, क्योंकि देहान्तर में प्रवेश अन्यनिमित्तक भी कहा जा सकता है, जैसे यह अनुमान है कि- आत्मा का एक देह से अन्यदेह में प्रवेश अभिलाषनिमित्तक होता है जैसे एक गृह से अन्य गृह में प्रवेश / तो इस प्रकार अभिलाषहेतु से आपका उक्त अन्यद्रव्यसंसर्गरूप हेतु अन्यथासिद्ध हो जाने से उसकी सिद्धि नहीं हो सकेगी / बौद्धों ने भी कहा है कि-दुःख का अवन्ध्य कारण बुद्धिविपर्यास अथवा तृष्णा ( अभिलाष ) है। जिस आत्मा में वृद्धिविपर्यास अथवा तप्णा ये दो नहीं होते उसको जन्म नहीं लेना पड़ता ।तो यह बात भी गलत है। कारण, इस जन्म में प्राणियों को होने वाला अभिलाष जन्मान्तर में अनु. वर्तमान नहीं होता, अतः जन्मान्तर के देह में प्रवेश इस जन्म के अभिलाष से होने की बात युक्त नहीं कही जा सकती। तदुपरांत, मनुष्यजन्म वाला प्राणी कदापि कुत्ती आदि के नीच गर्भस्थान में उत्पन्न होने का अभिलाष करे यह सम्भव ही नहीं, अत: अभिलाष के निमित्त से जन्मान्तर के देह में प्रवेश की बात अघटित है। निष्कर्ष यह है कि, धर्माधर्म आत्मा के गुण होने की बात का उक्त
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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