________________ 308 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ केचित्तु योगिप्रत्यक्ष संबन्धग्राहकमाहुः, व्याप्तेः सकलाक्षेपेणावगमात् / तथा च यत्र यत्रे'ति देशकालविक्षिप्तानां व्यक्तीनामनवमासाऽनुपपत्तिः, [ अत एकत्र क्षणे योगित्वं प्रतिबन्धग्राहिणः ? ] / एतत् पूर्वस्मादविशिष्टम् / तद् लोके अर्थान्तरदर्शनादर्थान्तरसुदृढप्रतीतौ ताकिकारणां निमित्तचिन्तायां पक्षधर्मत्वाद्यभिधानम् / अतो न तान्त्रिकलक्षणप्रतिक्षेपोऽपि। [अविनाभाव को और उसके ज्ञान को मानना ही चाहिये] जो लोग इस प्रकार के 'अविनाभाव' स्वरूप प्रतिबन्ध यानी संबध का इनकार करते हैं उनको यह प्रश्न है कि हर किसी चीज से सभी वस्तु का भान क्यों नहीं होता? और जो लोग उसका इनकार तो नहीं करते, किन्तु अर्थान्तर के बोध में उसके ज्ञान की आवश्यकता नहीं मानते-उनके मत में संबंध अज्ञात रहने पर भी साध्य के बोध का अतिप्रसंग क्यों नहीं होगा? यदि ऐसा उत्तर दिया जाय कि'अज्ञात संबंध से साध्य के बोध में बोधकर्ता को पूर्वकालीन संस्कार होना चाहिये और उन संस्कारों का आधान करने वाला साध्यदर्शन भी पूर्व में हुआ रहना चाहीये-यह सब जिस को नहीं होता उसको अज्ञात संबंध से साध्य बोध नहीं होता।'-तो यह उत्तर जूठा है क्योंकि संबंध ग्रहण किये विना बोधकर्ता को तथाविध संस्कार ही नहीं हो सकेगा / दर्शन से कदाचित् संस्कार हो जाय तो भी उसके अनभिव्यक्त रहने पर केवल सत्ता मात्र से वह साध्यबोध में उपयोगी नहीं हो सकेगा / अभिव्यक्ति भी तभी होगी जब उसका स्मरण हो जाय / यह नहीं कह सकते कि 'किसी विषय की अनुभूति का ध्वंस ही उस विषय की स्मृति का उद्भावक है, क्योंकि ध्वंस तो सदा रहता है फिर भी स्मृति कदाचित् होती है-यह संस्कार के विना नहीं घट सकेगा / दूसरी बात यह है कि निरन्वयनाश यानी निर्हेतुक ध्वंस का संभव नहीं / कहीं कहीं ऐसा देखा जाता है कि विषय का अति अभ्यास हो जाने पर विना विलंब ही एक वस्तु के दर्शन से दूसरी वस्तु का बोध हो जाता है, किन्तु गहराई से सोचने पर वहाँ भी पूर्वोक्त क्रम से ही साध्य का बोध होता है, फर्क होता है तो इतना ही कि अभ्यास न होने पर बीच में होने वाली सम्बन्धस्मृति का संवेदन भी होता है और अति अभ्यास रहने पर बीच में स्मृति तो होती है किन्तु उसका संवेदन नहीं होता। [अविनाभावसंबधग्रह की योगिप्रत्यक्ष से शक्यता ] कितने विद्वान् यह कहते हैं कि अविनाभावसंबन्ध का ग्राहक योगीओं का प्रत्यक्ष है। योगी के प्रत्यक्ष में देश-काल की कोई सीमा न होने से सकल हेत और साध्य व्यक्ति को विषय करते उससे व्याप्तिरूप सम्बन्ध का बोध प्राप्त हो सकता है। इसलिये 'जहाँ जहाँ धूम हो....' इस व्याप्ति के ग्रह में, जिस जिस देश में और जिस जिस काल में जितनी धूम व्यक्तिओं का अवभास - बोध करना है वह अनुपपन्न नहीं है / [ इसलिये एक क्षण में प्रतिबन्धग्राही की योगिता है (?) ]-यह जो मत है वह पूर्वकथित मत से कोई अन्तर नहीं रखता क्योंकि सामान्य द्वारा जो व्याप्तिग्रह पूर्व में कहा गया है वही यहाँ योगिवचन से होने वाला है। *तात्पर्य यह है कि बौद्धादि मत में नाश को निर्हेतुक माना जाता है। किन्तु अन्य सभी वादीओं का कहना है कि ध्वंस सहेतुक ही है अतः प्रस्तुत में अनुभूतिध्वंस को स्मृतिजनक मानने वाले को उस ध्वंस के हेतु को भी मानना ही होगा तो उससे अच्छा है कि स्मृति को संस्कार का ही कार्य माना जाय /