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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 307 प्रत्ययविषयत्वेन व्यवस्थापितम् / तदेवं नियतसाहचर्यमर्थान्तरं प्रतिपादयदुपलब्धं सत् प्रतिपादयति / उपलम्भश्चावश्यं क्वचित् स्थितस्य, सैव पक्षधर्मता, ततः सम्बन्धानुस्मृतौ ततः साध्यावगमः। ___ यस्तु प्रतिबन्धं नोपैति तस्यापि कथं न सर्वस्मात सर्वप्रतिपत्तिः, अभ्युपगमे वाऽप्रतिपन्नेऽपि सम्बन्ध प्रतिपत्तिप्रसंगः ? 'प्रमातृसंस्कारकारकाणां पूर्वदर्शनानामभावात्' इत्यनुत्तरम्, सम्बन्धाप्रतिपत्तौ प्रमातसंस्कारानुपपत्तेः / दर्शनजः संस्कारोऽप्यनभिव्यक्तः सत्तामात्रेण न प्रतिपत्त्युपयागा, न च स्मतिमन्तरेण तत्सद्भावोऽपि / न चानुभवप्रध्वंसनिबन्धना स्मृतिः क्वचिद्विषये, संस्कारमन्तरेण तदनुपपत्तेः प्रध्वंसस्य च निर्हेतुकत्वाऽसम्भवात् / यत्राप्यभ्यस्ते विषये वस्त्वन्तरदर्शनादव्यवधानेन वस्त्वन्तरप्रतिपत्तिस्तत्रापि प्राक्तनक्रमाश्रयणेन वस्त्वन्तरावगमः / इयांस्तु विशेषः-एकत्रानभ्यस्तत्वादन्तराले स्मृतिसंवेदनम् , अन्यत्राभ्यासाद् विद्यमानाया अप्यसंवित्तिः। [ अर्थान्तरबोध का निमित्त नियतसाहचर्य है-नैयायिकादिमत ] किसी एक चीज को देखकर दूसरी चीज के ज्ञान का निमित्त नियमभित साहचर्य है, जिस को 'अविनाभाव' शब्द से भी कहा जाता है-यह नैयायिकादि वादीओं की धारणा है / प्रत्यक्ष यानी अग्नि के होने पर धूम का दर्शन, तथा अनुपलम्भ, यानी अग्नि के न होने पर धूम का अदर्शन, इनकी सहाय से होने वाली प्रत्यक्ष प्रतीति से धूम में अग्नि के अविनाभाव का बोध होता है / यद्यपि यहाँ, पाकशाला में धूम के साथ जैसा अग्नि देखा था वैसा ही अग्नि, पर्वत में नहीं होता- इस प्रकार धूम का अग्नि के साथ देशादिकृत व्यभिचार कोई दिखा सकता है, तथा धूम और अग्नि व्यक्ति से अनन्त हैं अत: सभी धूम का सभी अग्नि के साथ माहचर्य प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, अतः अविनाभाव का ग्रह शक्य नहीं-ऐसा भी कोई कह सकता है-किन्तु ये दोनों से कोई बाध नहीं है, क्योंकि अविनाभाव का ग्रहण सामान्यतत्त्वद्वारा किया जाता है और धम व्यक्ति भले अनंत हो, सकल धुमगत धूम मगत धूमत्व सामान्य एक ही है, तथा अग्नि सकल में अग्नित्व सामान्य भी एक ही है तो यहाँ धूमत्ववान् का अग्नित्ववान् के साथ नियतसाहचर्यग्रह अविलंबेन किया जा सकता है / पाकशाला में जैसा अग्नि था वैसा पर्वत में विशिष्ट अग्नि न होने पर भी सामान्यतः वहाँ अग्नि का अभाव धूम होने पर नहीं होता, इतने से ही अनुमान सार्थक है / सकलधूम-सकल अग्नि का प्रत्यक्ष असंभव होने पर भी धूमत्व-अग्नित्व के माध्यम से उन सभी का मानस बोध हो सकता है अतः व्यक्ति-आनन्त्य भी बाधक नहीं है / सामान्यधर्म से आलिंगित सकलव्यक्ति का भान मानसप्रत्यक्ष में ठीक उसी प्रकार हो सकता है जैसे 'शत' संख्या को पुरस्कृत करके 'सो' ऐसी बुद्धि होती है उसमें एक दो-तीन........इस प्रकार के विशेषण से आलिंगित पूर्व-पूर्व गृहीत सो संख्या विशिष्ट पदार्थों का 'ये सभी मिल कर सो हैं' इस प्रकार मानस प्रत्यक्ष बोध होता है / क्योंकि ठोस गिनती के बाद देखिये कि 'ये सौ हैं' यह बोध तो होता ही है / सामान्य पदार्थ का सद्भाव भी 'यह वस्त्र है....वस्त्र है'....इस प्रकार के एकाकार [ =अनुगत] निर्बाध बोध के विषयरूप में प्रस्थापित ही है / तो इस प्रकार नियमभित साहचर्य से अर्थान्तर सूचित होता ही है और वह भी ज्ञात होने पर, अज्ञात रहने पर कभी नहीं। साहचर्य वाले धूमादि का ज्ञान यानी उपलम्भ भी 'कहीं पर वह अवस्थित है'-इस रूप से ही होता है-इस प्रकार के उपलम्भविषय को ही पक्षधर्मता कहते हैं / जब उसका उपलम्भ होता है तब तद्गत अविनाभावसंबंध का हमें स्मरण हो आता है और उस स्मरण से अग्नि आदि साध्य का ज्ञान होता है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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