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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ मुक्तिमीमांसायामुत्तरपक्षः ] अत्र प्रतिविधीयते-यत् . तावदुक्तम् 'नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वात' इति, अत्र बद्धयादिविशेषगणानां प्राक प्रतिषिद्धत्वात तत्सन्तानस्याभावादाश्रयाऽसिद्धो हेतुः / तथा, बुद्धचादीनां विशेषगुणानां परेण स्वसंविदितत्वेनानभ्युपगमाद् ज्ञानान्तरग्राह्यत्वे वाऽनव. स्थादिदोषप्रसक्तेरवेद्यत्वमित्यज्ञानस्य सत्त्वाऽसिद्धेः पुनरप्याश्रयाऽसिद्धः 'सन्तानत्वात' इति हेतः। किच, सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपादीयमानं यदि सामान्यमभिप्रेतं तदा बुद्धयादिविशेषगुणेषु प्रदीपे च तेजोद्रव्ये सत्तासामान्यव्यतिरेकेणापरसामान्यस्याऽसम्भवात् स्वरूपासिद्धः / सत्तासामान्यरूपत्वे वा सन्तानत्वस्य 'सत सत' इति प्रत्ययहेतत्वमेव स्यात . न पूनः सन्तानप्रत्ययहेतत्वमेव, अन्यथा द्रव्य-गण-कर्मस्वरूपादेव 'सत्-सत्' इति प्रत्ययसम्भवात् सत्तापरिकल्पनावैयर्थ्यम् / अथ विशेषगुणाश्रिता जातिः सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तम्, तदा द्रव्यविशेषे प्रदीपलक्षणे साधर्म्यदृष्टान्ते तस्याऽसम्भवात साधन विकलो दृष्टान्तः / न च सत्तादिलक्षणं सामान्यमेकं स्वाधारसर्वगतं वा प्रतिवादिनः प्रसिद्धमिति प्रतिवाद्यसिद्धो हेतुः। [विशेषगुणोच्छेदरूपमुक्ति की मान्यता का निरसन-उत्तरपक्ष ] अब नैयायिक के सिद्धान्त का प्रतिकार किया जाता है नैयायिकों ने जो यह कहा है-"आत्मा के नव विशेष गुणों के सन्तान का अत्यन्त उच्छेद हो सकता है क्योंकि वह सन्तानरूप है।" यहाँ सन्तानत्व हेतु आश्रयासिद्ध है क्योंकि बुद्धि आदि नैयायिकसम्मत विशेषगुणों का आत्मविभुत्ववाद में निराकरण कर दिया है अतः उनका सन्तान ही असिद्ध है, तो सन्तानत्व हेतु कहां रहेगा ? अन्य एक प्रकार से भी सन्तानत्व हेतु आश्रयासिद्ध हैनैयायिक बुद्धि आदि विशेषगुणों को स्वविदित नहीं मानता है, यद्यपि ज्ञानन्तरवेद्य मानता है किन्तु उसमें अनवस्थादि दोष आता है [ एक ज्ञान का ग्रहण करने के लिये दूसरा ज्ञान, दूसरे को ग्रहण करने के लिये तीसरा .. फिर चौथा...इस प्रकार अनवस्था दोष होता है ] / जब ज्ञान स्वसंविदित नहीं है और ज्ञानान्तरवेद्य भी नहीं हो सकता तो वह अवेद्य ही मानना पड़ेगा / जो अवेद्य अज्ञात होता है उसको सत्ता ही सिद्ध नहीं होगी। फिर बुद्धि आदि गुणों की सिद्धि न होने पर सन्तान भी असिद्ध ही हो जायेगा तो सन्तानत्व हेतु किस आश्रय में रहेगा ? तथा, हेतुरूप से प्रयुक्त सन्तानत्व यदि जाति रूप माना जाय तो हेतु स्वरूपासिद्ध हो जायेगा, क्योंकि बुद्धि आदि विशेषगुणों में तथा प्रदीपादि अग्निद्रव्य में सत्ता जाति के अलावा और किसी भी उभय साधारण अपर जाति का सम्भव ही न होने से उक्त सन्तानत्व जाति भी वहाँ नहीं रह सकेगी। यदि वहाँ सन्तानत्व को सत्ता जातिरूप ही मान लिया जाय तो फिर वह 'यह सत् है यह सत् है' ऐसी बुद्धि में हेतु होगी किन्तु 'यह सन्तान है' ऐसी बुद्धि के प्रति हेतु नहीं हो सकेगी। यदि सन्तानत्वजाति के विना भी आप वहाँ 'यह सन्तान है' ऐसी बुद्धि होने का मानेंगे तो सताजाति के विना ही द्रव्य-गुणकर्म में उनके स्वरूप से ही 'यह सत् है' ऐसी बुद्धि होने का मान लेने से सत्ता जाति को मानने की जरूर नहीं रहेगी अत: उसकी कल्पना व्यर्थ हो जायेगी। यदि कहें कि-हम सिर्फ विशेषगुणों में ही सन्तानत्व जाति को मान लेंगे और उसका हेतुरूप
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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