________________ 614 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तदेतदसाम्प्रतम् , मिथ्याज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वेन प्रतिषेधात् अनेकान्तज्ञानं च मिथ्येव, बाधकोपपत्तेः / तथाहि-नित्यानित्यत्वयोविधि प्रतिषेधरूपत्वादभिन्ने मिणि प्रभावः / एवं सदसत्त्वादेरपीति / यच्चेदम् ‘घटादिम दादिरूपतया नित्यः' इति, असदेतत् , मृदूपतायास्ततोऽर्थान्तरत्वात् / तथाहि-घटादर्थान्तरं मद्रूपता मृत्त्वं सामान्यम् , तस्य तु नित्यत्वे न घटस्य तथाभावस्ततोऽन्यत्वात् , घटस्य तु कारणाद् विलयोपलब्धेरनित्यत्वमेव / यच्चेदम् 'स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिष्वसत्त्वम्' तदिष्यते एव इतरेतराभावस्याभ्युपगमात् / तथाहि-इतरस्मिन् देशादावितरस्य घटस्याभावो नानुत्पत्तिः, न प्रध्वंसः, तत्र तस्य सर्वदाऽसत्त्वात् / द्वैरूप्ये तु स्वदेशादिष्वप्यनुपलम्भप्रसंगः / ____ एवमात्मनोऽपि नित्यत्वमेव, सुख-दुःखादेस्तद्गुणत्वेन ततोऽर्थान्तरस्य विनाशेऽप्यविनाशात् / कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वम् न प्रतिषिध्यते / तथाहि-यद् यस्यान्वय व्यतिरेकाभ्यामुत्पत्ती व्याप्रियते इत्युपलब्धं तत् तस्य कारणं नान्यस्येत्यभ्युपगम्यत एव / एवं शब्दानभिधेयत्वेऽपि 'न सर्व सर्वशब्दाभिधेयम्' इत्यभ्युपगमात् / न चानेकान्त भावनातो विशिष्टशरीरादिलाभेऽस्ति प्रतिबन्धः / न चोत्पत्ति- . धर्मणां शरीरादीनामक्षयत्वं न्याय्यम् / तथा, मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्तते इति मुक्तो न मुक्तश्चेति स्यात् / एवं च सति स एव मुक्तः संसारी चेति प्रसक्तम् / एवमनेकान्तेऽप्यनेकान्ताभ्युपगमो दूषणम् , वस्तुनः सदसद्रूपताऽनेकान्तः, तस्यानेकान्ताभ्युपगमे रूपान्तरमपि प्रसत्तम् / एवं नित्यानित्यरूपताव्यतिरिक्तं च रूपान्तरमित्यादि वाच्यम् / / अनेकान्त मत अयुक्त नहीं है, क्योंकि स्वदेश-स्वकाल-स्वकारण-स्वआधारादि की अपेक्षा से वस्तु का सत्त्व और पर देशादि की अपेक्षा असत्त्व इस प्रकार उभयरूपता प्रत्यक्ष से ही दिखती है। तथा, घटादि पदार्थ मिट्टी आदिरूप से नित्य है क्योंकि घट की सभी अवस्था में मिट्टीरूपता निरन्तर उपलब्ध होती है / घटादिरूप से वह अनित्य भी है क्योंकि उसका नाश होता है। इसी तरह आत्मा भी आत्मादिरूप से सर्वदा विद्यमान होने से नित्य है, किन्तु सुखादिपर्यायरूप से उसका विनाश भी दिखता है अत: अनित्य भी है इस प्रकार सर्वत्र अपने कार्यों की अपेक्षा उस में कर्तृत्व और तदन्य कार्यों के प्रति अकर्तृत्व भी सोच लेना चाहिये / तथा अपने वाचक शब्द की अपेक्षा से अभिषेयता और अन्य शब्दों की अपेक्षा से अनभिधेयत्व भी समझ लेना चाहिये / . [ अनेकान्तभावना से मोक्ष की बात असंगत ] यह जो अनेकान्तमत है वह अनुचित है- मिथ्याज्ञान कभी मोक्ष का कारण नहीं होता, और यह अनेकान्त का ज्ञान तो बाधकग्रस्त होने से मिथ्या ही है। जैसे देखिये-नित्यत्व और अनित्यत्व क्रमशः विधि निषेध रूप होने से एक अभिन्न धर्म में रह नहीं सकते / सत्त्व और असत्त्व भी उसी तरह नहीं रह सकते / तथा यह जो कहा कि-घटादि यह मृदादिरूप से नित्य है....इत्यादि, यह गलत है, क्योंकि मृदूपता तो घटादि से अन्यपदार्थरूप ही है। वह इस प्रकार, घट से अन्यपदार्थरूप मृदूपता मृत्त्वसामान्यरूप है, वह यदि नित्य हो तो उससे घट का नित्यत्व नहीं हो जाता, क्योंकि घट तो मृत्त्वसामान्य से अन्य ही है। घट का तो नाशक कारणों से नाश उपलब्ध होता है अत: वह अनित्य ही है / तथा स्व-देशादि में सत्त्व और पर-देशादि में असत्त्व की बात जो कही है वह तो इष्ट ही है, क्योंकि हम भी इतरेतराभाव ( यानी अत्यन्ताभाव ) को मानते ही हैं। वह इस प्रकारः-इतर देशादि में इतर यानी घट का जो अभाव है वह अनुत्पत्ति (प्रागभाव ) रूप या ध्वंसात्मक नहीं है