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________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दानित्यत्व० 163 तदपनोदकाश्चान्ये तथाभूता एव व्यंजकाः परिकल्पनीयाः। तेषां चोभयरूपाणामपि शक्तिनानात्वं परिकल्पनीयम् / अस्मत्पक्षे तत् सर्वमपि नास्तीति कथमदृष्टपरिकल्पना गुर्वी ? पौद्गलिकत्वं च शब्दस्य अम्बरगुणप्रतिषेधप्रस्तावे प्रमाणोपपन्नं करिष्यत इत्यास्तां तावत् / यत पनर्धान्तत्वं शब्दार्थप्रत्ययस्याभिहितं तद धमाल्लिगाल्लिगिप्रत्ययेन प्रत्यक्तम् / 'गत्वादिविशिष्टस्य गादेर्वाचकत्वमयुक्तम्, गत्व देः सामान्यस्याऽसम्भवात' तदनन्तरं निराकृतम् / यत पुनरुक्तम्-'गादिव्यक्तिसात्रं गत्वादिविशिष्टं नोपपद्यते, तस्य सामान्यविशेषयोरन्यतरत्रान्तर्भाव एकत्र वाचकस्य नित्यत्वप्रसंगाद् , अन्यत्राऽनन्वयात् वाचकत्वाऽयोगात्'-एतदसारम्, व्यक्तिमात्रस्य सामान्य विशिष्टस्य पूर्व वाचकत्वव्यवस्थापनातू / ता एवं व्यक्तयोऽविवक्षिताऽसाधारणविशेषाः सामान्यविशिष्ट व्यक्तिमात्रशब्दाभिधेयाः। किंच, कि वर्णानां नित्यत्वमभ्युपगम्यते, उत वर्णक्रमस्य, पाहोस्विद् वर्णाभिव्यक्ते , किं वा तत्क्रमस्य ? तत्र न तावत् अभिव्यनित्यत्वं, तस्या निषिद्धत्वात्, अनिषेधेऽपि पुरुषप्रयत्नप्रेरितवायुनहीं है ? तदुपरांत, आपके पक्ष में तो ओर भी कल्पनाओं का गौरव दोष लब्धप्रसर है: जैसे-वर्ण की पूर्वकोटि और अपर कोटि के सत्त्व की, जो किसी भी देश में प्रत्यक्षत: उपलभ्यमान नहीं है, कल्पना करनी होगी। उसके आवारक शान्त वायु की, जो प्रमाण से उपलभ्यमान नहीं है, कल्पना करनी पडैगी / तथा उस वायु के अपसारक वायु भी प्रमाण से उपलब्ध नहीं है उनकी व्यंजकरूप में कल्पना करनी होगी। तथा, दोनों वायु समान होने पर भी उनके अलग-अलग सामर्थ्य की कल्पना करनी होगी। हमारे पक्ष में ऐसा कुछ भी नहीं है तो अदृष्ट कल्पना का गौरव कैसे होगा ? [ सादृश्य से अर्थबोधपक्ष में दी गयी आपत्तिओं का प्रतीकार] 'शब्द पौद्गलिक है' इस तथ्य की प्रमाण से उपपत्ति शब्द के आकाशगुणत्व के निराकरण के अवसर में की जायेगी-उस को अभी रहने दो। किंतु आपने यह जो कहा था 'सादृश्य से अर्थ प्रतिपत्ति मानने पर शब्द से उत्पन्न अर्थबोध भ्रमात्मक होगा' इसका तो, धूमात्म क लिंग से लिंगी अग्नि का बोध होता है किंत वह भ्रान्त नहीं होता है इसलिये-प्रत्यक्त यानी प्रत्युत्तर हो जाता है / तात्पर्य, सदृश शब्द से अर्थबोध भी भ्रान्त नहीं कहा जा सकता / तथा, 'गत्वादिविशिष्ट गकारादि को वाचक मानना अयुक्त है क्योंकि गत्वादि सामान्य का असंभव है' यह जो कहा था वह भी गत्वादि सामान्य का संभव प्रदर्शित कर देने से निराकृत हो जाता है। तथा यह जो कहा था-'गत्वादि विशिष्ट गकारादि व्यक्ति मात्र वाचक नहीं हो सकता क्योंकि यदि उसको सामान्यान्तर्भूत मानेंगे तो नित्य की ही वाचकता फलित होगी और विशेषान्तर्भूत मानेंगे तो उसका अर्थ के साथ संकेतादि अन्वय घटित नहीं होने से वाचकत्च न होगा'-यह भी सारहीन उक्ति है / क्योंकि पहले ही हमने सामान्यविशिष्ट गकारादि व्यक्ति की वाचकता का उपपादन कर दिया है / आशय यह है कि हम सामान्य-विशेष को अत्यन्त भिन्न नहीं मानते किंतु व्यक्तिअन्तर्गत असाधारण विशेष की जब विवक्षा छोड दे तब उन्हीं व्यक्तिओं को 'सामान्य विशिष्ट व्यक्तिमात्र' कहा जाता है / [ अपौरुषेयवादी वर्णादि चार में से किसको नित्य मानेगा ? ] ___ यह भी विचारणीय है-A क्या आप वर्णों को नित्य मानते हैं ? B या वर्णक्रम को? अथवा वर्णाभिव्यक्ति को? या D अभिव्यक्ति के क्रम को?
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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