SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 162 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 शब्दस्याऽऽगमनं तावददृष्टं परिकल्प्यते // [107 उत्तरार्द्धम्] मूत्तिस्पर्शादिमत्त्वं च तेषामभिभवः सतां / त्वगग्राह्यत्वमन्ये च सक्ष्मा भागाः प्रकल्पिताः॥ तेषामदृश्यमानानां कथं च रचनाक्रमः? कीदृशाद रचनाभेदाद्वणभेदश्च जायताम् / / 109 // द्रवत्वेन विना चैषां संश्लेषः कल्प्यतां कथम ? आगच्छतां च विश्लेषो न भवेद्वायुना कथं // ऽवयवा ह्यते निबद्धा न च केनचित् / वृक्षाद्यभिहितानां तु विश्लेषो लोष्टबद भवेत् // 111 // एकश्रोत्रप्रवेशे च नान्येषां स्यात्पुनः श्रुतिः / न चावान्तरवर्णानां नानात्वस्यास्ति कारणम् // . न चैकस्यैव सर्वासु गमनं दिक्षु युज्यते। [113 पूर्वार्द्धम् श्लो० वा० सू० 6] इति / एतद् भवत्पक्षेऽपि सर्व समानम् / तथाहि-'वायोरागमनं तावददृष्टं परिकल्प्यते' इत्याऽद्यपि वक्त शक्यत एव, केवलं वर्णस्थाने वायुशब्दः पठनीय इति कथं न भवत्पक्षेऽपि भूयस्यदृष्टपरिक च भवत्पक्षेऽयमपरः परिकल्पनागौरवदोषः सम्पद्यते-वर्णस्य पूर्वाऽपरकोटयोः सर्वत्र देशेऽनुपलभ्यमानस्य सत्त्वं परिकल्पनीयम्, तस्य चावारकाः स्तिमिता वायवः प्रमाणतोऽनुपलभ्यमानाः ष्पादक एक दूसरे अवयवों का संश्लष भी कैसे होगा? यद्यपि किसी प्रकार कर्ता ने संश्वष कर के वर्णों को बना भी लिया, किंतु दूर देश से आते समय वायु के झपाटे से वे बिखर क्यों नहीं जायेंगे ? जलादि आश्लेषक द्रव्य के विरह में केवल एक दूसरे संयोग मात्र से निबद्ध सूक्ष्म अवयवों जब दूर से आयेंगे तो बीच में वृक्षादि के साथ टकरा कर बिखर जायेंगे भी, जैसे मिट्टी का गोला / मूर्त होने के कारण जब एक शब्द एक श्रोत्र में प्रवेश करेगा तो वहाँ ही चिपक जायेगा तो अन्य श्रोताओं उस देश में होने पर भी उन को उसका श्रवण नहीं होगा। कारण, विना कोई अन्य प्रयत्न किये ऐसे ही वह फिर से बहार निकल आने का संभव नहीं। तथा जब एक ही अखंड गोशब्द की अपेक्षा 'ग-ओ' आदि अवान्तर वर्णविभाग की कल्पना में कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि आप करेंगे तो यह गकारादि वर्णवैविध्य की अदृष्ट कल्पना होगी। तथा एक ही अवयवीरूप गोशब्द का सर्व दिशाओं में प्रसरण बुद्धिगम्य न होने से उसकी भी अदृष्टकल्पना करनी होगी। यह सब हमारे श्लोकवात्तिक कार भट्ट कुमारील ने भी कहा है - [ श्लो० वा० सूत्र 6 ] ___ "शब्द के अदृष्ट ही आगमन की कल्पना की जाती है / शब्द की मूर्त्तता, स्पर्शादिमत्ता, तथा विद्यमान (स्पर्शादि का) अभिभव, त्वगिन्द्रिय से अग्राह्यता और उनके सूक्ष्म विभागों की कल्पना की जाती है / अदृश्य उनकी रचना का क्रम कैसा होगा ? किस प्रकार के रचनाभेद से वर्णभेद होगा? द्रवत्व के विना उनके संशष की कल्पना कैसे होगी? (दर से) आते हए उनका वायू से विशेष क्यों नहीं होगा ? ये सूक्ष्म अवयव किसी से भी अबद्ध [अनाश्लिप्ट] रहते हुये आते समय वृक्षादि से अभिघात होने पर मिट्टी पिंड की भाँति क्यों न बिखर जायेगा? एक श्रोत्र में प्रविष्ट हो जाने पर दूसरे को वे नहीं सुनाई देंगे / अवान्तर वर्णों के वैविध्य का कोई कारण भी नहीं है / तथा एक ही शब्द का सर्व दिशाओं में गमन भी अयुक्त है / '' इत्यादि / [ मीमांसकमत में भी उन समस्त दोषों का प्रवेश तदवस्थ-उत्तरपक्ष ] उत्तरपक्षी:-उपरोक्त समग्र दोषपरम्परा आपके मत में समान ही हैः जैसे कि-'आपको वायु के अदृष्ट ही आगमन की कल्पना करनी होगी........' इत्यादि सब कहा जा सकता है, केवल 'शब्द' के स्थान में 'वायु' शब्द को लगा देना होगा / तो आपके मत में वेसुमार अदृष्ट कल्पना कैसे
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy