________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 - अथानुमानात् प्रागभावोऽर्थस्य सिध्यति, प्राक् सत्तां बिना पश्चाद्दर्शनाऽयोगादिति / तदप्यसत्, यतः पश्चाद्दर्शनस्य प्राकसत्तायाः सम्बन्धो न सिद्धः, प्राक् सत्तायाः कथंचिदप्यसिद्धेः / न चाऽसिद्धया सत्तया व्याप्तं पश्चाद्दर्शनं सिध्यति, येन ततस्तत्सिद्धिः / अथ 'यदि प्रागर्थमन्तरेण दर्शनमुदयमासादयति तथा सति नियामकाभावात सर्वत्र सर्वदा सर्वाकारं तद् भवेत् / नायमपि दोषः, नियतवासनाप्रबोधेन संवेदननियमात् / तथाहि-स्वप्नावस्थायां वासनाबलाद्दर्शनस्य दर्शनस्य देशकालाकारनियमो दृष्ट इति जाग्रहशायामपि तत एवासौ युक्तः / अर्थस्य तु न सत्ता सिद्धा, नापि तद्भेदात् संवित्तिनियम इति, तन्न ततः संविद्वैचित्र्यम् . तस्मान्न कथंचिदपि नीलादेः प्राक सत्तासिद्धिः। कारण, पूर्वकालीन दर्शन असद्विषयक हो जाने पर जूठा यानी अप्रमाण हो जायेगा। (1) तथा, वर्तमानकालीन दर्शन से, 'वर्तमाननीलादि पूर्वकालीन दर्शन के भी विषय अवगाहन भी अशक्य है, क्योंकि वर्तमान दर्शन के काल में पूर्वदर्शन काल तो समाप्त हो चुका है.। प्रत्यक्षदर्शन, अस्त हो जाने वाले पूर्वदर्शनादि को विषय नहीं कर सकता / यदि विषय करेगा भी तो अस्त हो जाने से वर्तमान में असत् बने हुए पूर्वदर्शन को विषय करने से वह भी असद्विषयक यानी अप्रमाण माना जायेगा। निष्कर्ष यह आया कि हग् (=दर्शन) से सभी वस्तु का पूर्वकालीनदर्शनादिसंबंध से विनिर्मुक्तरूप से ही ग्रहण होता है / इस से 'दर्शन नहीं तो स्मृति पूर्वदृष्टता का उल्लेख करती है' इस कथन का भी निराकरण हो जाता है, क्योंकि किसी भी ज्ञान से पूर्वोक्तरीति से पूर्वदृष्टता का उल्लेख होता नहीं है / प्रत्यभिज्ञा से भी पूर्वदृष्ट और दृश्यमान का ऐक्य भासित नहीं होता, क्योंकि 'यह वही है' ऐसी प्रत्यभिज्ञा वास्तव में एक प्रतीतिरूप नहीं किन्तु स्मृति और दर्शन का मिश्रण है। "वह इस प्रकार की प्रतीति स्मरणरूप है और “यह" इस प्रकार की प्रतीति ग (दर्शन)स्वरूप है। इसमें स्मरण परोक्ष है और दर्शन अपरोक्ष है. परोक्ष और अपरोक्ष आकार परस्पर विरोधी होने से उन दो प्रतीतियों का ऐक्य-एकस्वभावत्व संभव नहीं है। तब दिखाईये, कैसे पूर्वकाल में अर्थ की सत्ता सिद्ध होगी? [ पूर्वकाल में अर्थसत्ता की अनुमान से सिद्धि दुष्कर ] यदि कहा जाय-अनुमान से पूर्वकालीन अर्थसत्ता सिद्ध है जैसे: 'अर्थ पूर्वकाल में सत् था, क्यौकि उत्तरकालीन दर्शन का विषय है' / उत्तरकाल में अर्थ का दर्शन पूर्वकाल में उसकी सत्ता के विना नहीं घट सकता / तो यह भी ठीक नहीं है / क्योंकि पश्चाद् (== उत्तरकालीन) दर्शन और पूर्वकालीन सत्ता इन दोनों के बीच व्याप्तिनामक संबंध ही सिद्ध नहीं है-इस का भी कारण यही है कि किसी भी प्रमाण से अर्थ की प्राक सत्ता सिद्ध नहीं है / पूर्वकालीन सत्ता ही जब असिद्ध है तब उसके साथ पश्चाद् दर्शन का व्याप्ति संबंध कैसे सिद्ध होगा? जब व्याप्ति असिद्ध है तब पश्चाद् दशन से पूर्वकालीन सत्ता भी कैसे सिद्ध होगी ? यदि कहें कि-'पूर्वकाल में अर्थ की सत्ता के विना ही दर्शन का उदय हो जायेगा तो फिर दर्शन के आकार आदि का किमी भी नियामक न होने से सदा के लिये सर्वत्र सभी नील-पीतादि आकारवाला दर्शन उत्पन्न होता रहेगा'-यह कोई महत्त्वपूर्ण दोष नहीं है, क्योंकि संवेदन में काल-देश और आकार का नियामक नियत प्रकार की वासना का उद्बोध ही है / जैसेः स्वप्नदशा में दर्शन के काल, देश और आकार का नियम वासना के ही प्रभाव से होता है तो जागति दशा में भी उसीसे वह नियम मानना अयुक्त नहीं है / आप अर्थ को नियामक दिखाना चाहते हैं किन्तु उसकी