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________________ 558 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ संयोगाश्रयत्वाच्च, तदपि वायुनाऽभिघातदर्शनात्-संयुक्ता एव हि पांश्वादयो वायुनाऽन्येन वाऽभिहन्यमाना दृष्टाः, तेन च तदभिघातः पाश्वादिवदेव देवदत्तं प्रत्यागच्छतः प्रतिकलेन वायना प्रतिनिवर्तनात् , तदप्यन्यदिगवस्थितेन श्रवणात् / ननु गन्धादयो देवदत्तं प्रत्यागच्छन्तस्तेन निवर्त्यन्ते, न च तेषां तेन संयोगः निर्गुणत्वात् गुणत्वेन / न, तद्वतो त्यस्यैव तेन निवर्तनम् , केवलानां तेषामागमन-प्रतिनिवर्तनाऽसम्भवात निष्क्रियत्वेनोपगमात् / केवलागमन-प्रतिनिवर्तनसंभवे वा द्रव्याश्रितत्वमेतेषां गुणलक्षणं व्याहन्येत / न चात्रापि तद्वतो निवर्त्तनम् , प्राकाशस्यामूर्त्तत्व-सर्वगतत्वेन तदसंभवात् अन्यस्य चानभ्युपगमात् / तस्माच्छब्द एव तेन संयुज्यते साक्षादित्यभ्युपेयम् / गुणत्वेन चाऽसंयोगे चक्रकमुक्तम् / न चाऽसंयुक्तस्यैव तेन निवर्त्तनम् , सर्वस्य निवर्तनप्रसंगात् / प्रतिक्षणं शब्दाच्छब्दोत्पत्तिः पूर्वमेव निरस्ता। अल्प है' ऐसी प्रतीति की आपत्ति होगी, तथा तीव्रवेग से बहने वाले अल्पपरिणाम गिरिनदी के जल में भी तीव्रता के योग से 'यह महान् है' ऐसी प्रतीति की आपत्ति होगी। वास्तव में ऐसी प्रतीति' होती नहीं है इससे फलित होता है कि अल्प-महान् प्रतीति मन्दता--तीव्रतामूलक नहीं है, किन्तु अल्पमहत्परिमाण मुलक है। ऐसा यदि नहीं मानेंगे तो घटादि में भी अल्प-महत् की प्रतीति को परिमाणमूलक नहीं मान सकेंगे। यदि कहें कि-'द्रव्यात्मक होने के कारण घटादि में परिमाण का संभव निर्बाध होने से अल्पमहान्प्रतीति को परिमाणमूलक मान सकते हैं'-तो शब्द भी द्रव्यात्मक होने से उसमें होने वाली अल्पमहत्प्रतीति को भी परिमाणमूलक ही मानी जाय, दोनों स्थल में और कोई विशेषता नहीं है। यदि कहें कि-शब्द में अल्प-महान् प्रतीति उसके कारण में रहे हये अल्प-महत्परि.. माण के उपचार से होती है अतः वास्तव में नहीं है तो यह कथन उलझन की निपज है, घटादि के परिमाण में भी औपचारिकता की आपत्ति दूर नहीं है। दूसरे वादी कहते हैं-अश्व के वेग का पुरुष में उपचार करके 'पुरुष जा रहा है' ऐसी प्रतीति करते हैं उसी तरह व्यंजकवायुगत अल्प महत्त्व का शब्द में उपचार करने से शब्द में भी अल्प-महान् शब्दप्रयोग किये जाते हैं / किन्तु यह भी असार है क्योंकि अपौरुषेयतानिराकरणप्रकरण में शब्द की अभिव्यक्ति का पक्ष भी निषिद्ध हो चुका है / निष्कर्षः-घटादि की तरह शब्द में भी अल्प-महत्परिमाण का योग पारमार्थिक सिद्ध होता है और उससे शब्द में गुणवत्ता की भी सिद्धि निर्बाध है / [संयोग के आश्रयरूप में द्रव्यत्व की सिद्धि ] 'शब्द द्रव्य है क्योंकि संयोग का आश्रय है' इससे भी शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध है। वायू के झोके से शब्द का अभिघात देखा जाता है अतः उसमें संयोगाश्रयता भी सिद्ध है। जैसे देखिये ; वाय से या दूसरे किसी के संयोग से ही धूलिकण आदि का अभिघात होता हुआ दिखता है। धूलीकण के ही अभिघात की तरह वायु से शब्द का भी अभिघात होता है, यह इसलिये कि देवदत्त की ओर आने वाला शब्द भी प्रतिकूल वायु के वेग से दूसरी दिशा में चला जाता है, और उस दिशा में रहे हुए अन्य आदमी को वह सुनाई भी देता है। यदि यह कहा जाय कि-देवदत्त के प्रति आनेवाली पुष्पादि की सुगन्धि भी वायु के वेग स दूसरी दिशा में बह जाती है, किन्तु इतने मात्र से गन्धादि के साथ वायु का संयोग नहीं सिद्ध हो सकता, गन्धादि तो गुण है और वे निर्गुण होते हैं तो यह ठीक नहीं है, वायु के वेग से गन्ध दूसरी
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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