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________________ 296 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नांप्रियेण / तथा, प्रामाण्यमप्यनुमानस्याभ्युपगतमेव, यतो यदेवाऽविसंवादित्वलक्षणं प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यं अनुमानस्यापि तदेव / तदुक्तम्-[ ] ___ अर्थस्याऽसंभवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता / प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् // इति / अर्थाऽसंभवेऽभाव: प्रत्यक्षस्य संवादस्वभावः प्रामाण्ये निमित्तम् / स च साध्यार्थाभावेऽभाविनो लिंगादुपजायमानस्यानुमानस्यापि समान इति कथं न तस्यापि प्रामाण्याभ्युपगमः ? ! कि चाऽयं चार्वाकः प्रत्यक्षेकप्रमाणवादी यदि परेभ्यः प्रत्यक्षलणमा पादयति तदा तेषां ज्ञानसम्बन्धित्वं कुतः प्रमाणादवगच्छति ? न तावत् प्रत्यक्षात् , परचेतोवृत्तीनां प्रत्यक्षतो ज्ञातुमशक्यत्वात् / किं तर्हि ? स्वात्मनि ज्ञानपूर्वको व्यापार-व्याहारौ प्रमाणतो निश्चित्य परेष्वपि तथाभूततदर्शनात् तत्सम्बन्धित्वमवबुध्यते, ततस्तेभ्यस्तत् प्रतिपादयति / तथाऽभ्युपगमे च व्यापार-व्याहारादेलिगस्य ज्ञानसम्बन्धित्वलक्षणस्वसाध्याऽव्यभिचारित्वं पक्षधर्मत्वं चाभ्युपगतं भव. तीति कथमनुमानोत्थापकस्यार्थस्य त्रैरूप्यमसिद्धम्-येन 'नास्माभिरनुमानप्रतिक्षेपः क्रियते किंतु त्रिलक्षरणं यदनुमानवादिभिलिगमभ्युपगतं तन्न लक्षणभाग भवतीति प्रतिपाद्यते" इति वचः शोभामनुभवति ? !-प्रत्यक्षलक्षणप्रतिपादनार्थ परचेतोवृत्तिपरिज्ञानाभ्युपगमे त्रिलक्षणहेत्वभ्युपगमस्यावश्यभावित्वप्रतिपादनात्। प्रामाण्य के लक्षण को मानता है वह मूर्ख हो फिर भी अनुमान के लक्षण को मानेगा ही क्योंकि प्रत्यक्षप्रामाण्य के लक्षण को संगत करने के लिये जो अविसंवादित्व के साथ प्रामाण्य के अविनाभाव को मानता है उसको प्रत्यक्ष में अविसंवादित्व प्रामाण्य का ज्ञापक बनता ही है / अनुमान के लक्षण को न मानने पर प्रत्यक्ष में प्रामाण्य का ज्ञान कैसे वह करेगा? तदुपरांत, जो प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है उसे अनुमान भी प्रमाणरूप में मानना ही पड़ेगा क्योंकि प्रत्यक्ष में जो प्रामाण्य है आव. संवादिता रूप, वही अनुमान में भी वर्तमान है / अनुमानप्रामाण्य के समथन में एक प्राचीन वचन भी है अर्थस्याऽसंभवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता / प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् / / इसका तात्पर्य यह है कि-अर्थ के विरह में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता अतः अर्थाविसंवादित्व यानो संवादीस्वभाव यही प्रत्यक्ष की प्रमाणता का निमित्त यानी प्रयोजक है / तो अपने साध्य के अभाव में स्वयं भी न रहना-ऐसे स्वभाव वाले अर्थात् प्रतिबन्धविशिष्टस्वभाववाले लिंग में भी स्वसाध्यसंवादिता रूप निमित्त सुरक्षित होने से तथाविध हेतु से प्रमाणभूत अनुमान की उत्पति हो सकती है क्योंकि निमित्त दोनों पक्ष में समान है / अतः अनुमान के प्रामाण्य को क्यों न माना जाय ! [ हेतु में त्रैरूप्य का स्वीकार आवश्यक ] और एक बात-यह चार्वाक [ =नास्तिक ] कि जो केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण कहता है, वह जब प्रत्यक्ष के लक्षण न जानने वाले दूसरों के प्रति प्रत्यक्ष के लक्षण का निरूपण करता है तब जो उसे यह पता चलता है कि 'इन लोगों को (मेरे निरूपण से) ज्ञान हुआ' इस ज्ञानसंबन्धिता का पता वह कैसे लगाता है ? प्रत्यक्ष से नहीं लगा सकता क्योंकि अन्यव्यक्ति के चित्तवृत्तिओं को प्रत्यक्ष से जान लेना अशक्य हैं / तो कैसे पता लगेगा? इस रीति से कि वह अपनी आत्मा में 'चेष्टा और भाषण आदि ज्ञानपूर्वक ही है' यह निश्चय करता है और बाद में अन्य लोगों में भी उसी प्रकार के चेष्टा और भाषण को देखकर ये भी मेरे जैसे ज्ञानवाले हैं ऐसा ज्ञानवत्ता का पता लगाता है। जब
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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