SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 295 न्धितयाऽवगम्यते इति कथं-"समुदायः साध्यः तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वं हेतोरवगन्तव्यम् , न च पक्षधमत्वाऽप्रतिपत्तौ साध्यधर्मानलविशिष्टतत्प्रदेशप्रतिपत्तिः, प्रतिपत्तौ वा पक्षधर्मत्वाद्यनुसरणं व्यर्थम् , तत्त तिपत्तेः प्रागेव तदुत्पत्तेः। समुदायस्य साध्यत्वेनोपचारात तदेकदेशर्मिधर्मत्वावगमेऽपि पक्षधम त्वावगमाददोषे उपचरितं पक्षधर्मत्वं हेतोः स्यादित्यनुमानस्य गौणत्वापत्तेः प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभः" इति चोद्यावसरः ? प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणेऽपि क्रियमाणेऽस्य सर्वस्य समानत्वेन प्रतिपादितत्वात् / ____ यदा चाऽविसंवादित्वलक्षण-प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्ष्ययोः सर्वोपसंहारेण व्याप्तिरभ्युपगम्यते, प्रविसंवादित्वलक्षणश्च प्रामाण्यव्यवस्थापको धर्मस्तत्राङ्गीक्रियते पूर्वोक्तन्यायेन, तदा कथमनुमानं नाभ्युप: गम्यते प्रमाणतया ? तथाहि-'यत् किंचिद् दृष्टं तस्य यत्राऽविनाभावस्तद्विदस्तस्य तद् गमकं तत्र' इत्येतावन्मात्रमेवानुमानस्यापि लक्षणम् / तच्च प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणमभ्युपगच्छताऽभ्युपगम्यते देवातदेकदेशभूत केवल प्रत्यक्षरूप धर्मि के संबन्धी के रूप में जाना जाता है और उस वक्त प्रामाण्य अज्ञात रहता है, ठीक उसी प्रकार अनुमान रथल में धूम भी अग्निविशिष्ट पर्वत रूप समुदाय का नहीं किन्तु तदेकदेशभूत केवल पर्वत का ही सम्बन्धी रूप में जाना जाय और अग्नि ज्ञआत रहे तो भी उसकी पक्षधर्मता को कोई हानि नहीं होती / तब फिर आपने विना सोचे जो यह पर्यनुयोग किया था कि-"साध्य तो समुदाय है, उसकी अपेक्षा ही पक्षधर्मता हेतु में अवगत करनी चाहिये / इस प्रकार की पक्षधर्मता अज्ञात रहने पर 'साध्यधर्मभूत अग्नि से विशिष्ठ पर्वतदेश' का ज्ञान नहीं हो सकता / यदि इस प्रकार का ज्ञान पहले ही हो जाय तब तो अग्नि की सिद्धि हो ही गयी फिर पक्षधर्मता आदि का अन्वेषण ही व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि हेतु में पक्षधर्मता के ज्ञान से पर्वत में जिस अग्नि का ज्ञान करना है वह तो पहले से ही उत्पन्न है। यदि समुदाय के एकदेशरूप मि पर्वतादि में समुदायसाध्यता का उपचार करके उस धर्मि के धर्मरूप में धूम का ज्ञान करने पर इसी ज्ञान को ही पक्षधर्मता का ज्ञान कहा जाय और उसमें कोई दोष न माना जाय तब तो हेतु की ऐसी पक्षधर्मता उपचरित हुयी, वास्तव नहीं, अतः उससे होने वाला अनुमान भी गौण यानी उपचरित / / जो प्रमाण होता है वह गौण नहीं होता अत: गौण अनमान से अर्थ का निर्णय दुर्लभ है"इत्यादि पर्यनुयोग को अब कहाँ अवसर है जब कि आपने भी प्रामाण्य विशिष्ट प्रत्यक्ष रूप समुदाय को छोडकर केवल प्रत्यक्ष के साथ संबद्ध अविसंवादित्व को प्रामाण्य का व्यवस्थापक मान लिया है / अतः प्रत्यक्ष के प्रामाण्य के लक्षण की व्यवस्था करने में भी उपरोक्त सब बात समानरूप से लागू की जा सकती है यह दिखा दिया है। [प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने पर बलात् अनुमानप्रामाण्यापत्ति ] हमने जो पहले युक्तियां दिखाई है उसके अनुसार यदि आप-अविसंवादित्वरूप लक्षण और प्रत्यक्ष में प्रामाण्यरूप लक्ष्य की सर्वदेश कालगर्भित व्याप्ति को मानते हैं, तथा प्रामाण्य के लक्षण के व्यवस्थापकधर्म अविसंवादित्व को प्रत्यक्ष में अंगीकार करते हैं तब आपको पूछना है कि अनुमान को क्यों प्रमाणरूप से नहीं मानते हैं ? देखिये-अनुमान का लक्षण यह है कि “जो कुछ (धूमादि) दिखाई देता है, उसका जिस (अग्नि) के साथ अविनाभाव होता है, उस अविनाभाव के ज्ञाता को वह (धूमादि) उसका (अग्नि आदि) ज्ञापक होता है ।"-इतना ही अनुमान का लक्षण है और जो प्रत्यक्ष
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy