________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 297 अथ नाऽस्माभिः प्रत्यक्षमपि प्रमाणत्वेनाभ्युपगम्यते येन 'तल्लक्षणप्रणयनेऽवश्यंभावी अनुमानप्रामाण्याभ्युपगमः' इत्यस्मान प्रति भवद्धिः प्रतिपाद्येत / यत्त 'प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम्' इति वचनं तव तान्त्रिकलक्षणालक्षितलोकसंव्यवहारिप्रत्यक्षापेक्षया। अत एव लक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकानुमानस्य 'अनुमानमप्रमाणम्' इत्यादिग्रन्थसंदर्भेणाऽप्रामाण्यप्रतिपादन विधीयते, न पुनर्गोपालाद्यज्ञलोकव्यवहाररचनाचतुरस्य धूमदर्शनमात्राविर्भूतानलप्रतिपत्तिरूपस्य / नैतच्चारु-तस्यापि महानसादिदृष्टान्तधमिप्रवृत्तप्रमाणावगतस्वसाध्यप्रतिबन्धनिश्चितसाध्यमिधर्मधमबलोद्भूतत्वेन तान्त्रिकलक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकत्वस्य वस्तुतः प्रदर्शितत्वात् / 'एतत् पक्षधर्मत्वम् इयं चास्य धूमस्य व्याप्तिः' इति सकितिकव्यवहारस्य गोपालादिमूर्खलोकाऽसंभविनोऽकिञ्चित्करत्वात् / प्रत्यक्षस्य चाविसंवादित्वं प्रामाण्यलक्षणम् , तद् यथा संभवति तथा परत: प्रामाण्यं व्यवस्थापयद्धिः 'सिद्धं' इत्येतत्पदव्याख्यायां दशितं न पुनरुच्यते / तत् स्थितमेतत् न प्रत्यक्षस्य भवदभिप्रायेण प्रामाण्यव्यवस्थापकलक्षणसम्भवः, तद्भाव वाऽनुमानस्यापि प्रामाण्यप्रसिद्धिः, इति न प्रत्यक्ष पर्यनुयोगविधायि / यह मा य है तब निर्विवाद चेष्टा-भाषणादि लिंग में अपने साध्यभूत ज्ञानसंबन्धिता की अव्यभिचारिता का और पक्षधर्मता का भी स्वीकार हो ही गया। तो फिर अनुमान के उद्भावक लिंगभूत अर्थ में सिद्धि कैसे ? नास्तिक के इस पूर्वोक्त वचन की शोभा भी कैसे रहेगी कि-"हमारी ओर से अनुमान का प्रतिक्षेप नहीं किया जाता किंतु अनुमानवादीओं ने जो तीन लक्षण वाले लिंग को माना है वह लक्षणयुक्त नहीं है यही हमारी ओर से कहा जाता है" इत्यादि, क्योंकि प्रत्यक्ष के लक्षण के निरूपणार्थ अन्य व्यक्ति की चित्तवृत्ति का ज्ञान मानते हैं तो उसमें तीन लक्षण वाले हेतु का स्वीकार हो ही जाता है / [ तान्त्रिकलक्षणानुसारी अनुमान का प्रतिक्षेप अशक्य ] यदि नास्तिक कहेगा कि-हम प्रत्यक्ष को प्रमाण ही नहीं मानते हैं फिर आपकी ओर से यह उपालम्भ कसे दिया जा सकता है कि 'प्रत्यक्ष के लक्षण का निरूपण करने पर अनुमान का प्रामाण्य अवश्यमेव मानना पड़ेगा' इत्यादि / 'प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है' ऐसा जो वचन है वह तर्कवादीओं द्वारा प्रतिपादित लक्षण से लक्षित प्रत्यक्ष की अपेक्षा नहीं है किंतु उससे भिन्न जो लोक प्रचलित व्यावहारिक प्रत्यक्ष है उसकी अपेक्षा कहा गया है। इसीलिये तो हम तर्कवादीओं के प्रतिपादित लक्षण से लक्षित प्रत्यक्ष के उत्तरभावी अनुमान का ही 'अनुमान प्रमाण नहीं है' इस प्रकार की ग्रन्थरचना द्वारा, अप्रामाण्य का प्रतिपादन करते हैं, किंतु जो ग्वाले आदि अज्ञानी लोक प्रचलित व्यवहार को चलाने में उपयोगी, एवं केवल धूम के दर्शन से उत्पन्न होने वाले अग्निबोध रूप अनुमान है उसको अप्रमाण नहीं कहते हैं / तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ग्वाले आदि को होने वाला अनुमान भी कोई ऐसे ही धूम से नहीं उत्पन्न हो जाता, किन्तु जब 'धूम साध्यमि पर्वतादिरूप पक्ष का धर्म है' इस प्रकार पक्षधर्मता का धूम में निश्चय रहे, तथा पाकशाला आदि दृष्टान्तरूप धर्मि में प्रवर्त्तमान प्रत्यक्ष प्रमाण से धूम का अपने साध्य भूत अग्नि के साथ जो अविनाभाव-उसका भी धूम में निश्चय रहे तभी ग्वाले आदि को अग्नि का अनुमान होता है / इस अनुमान में तर्कवादिओं से रचित लक्षण से लक्षित प्रत्यक्ष पूर्वकता का स्पष्ट प्रदर्शन नहीं है तो क्या है ? ग्वाले आदि मूर्ख लोगों में अगर 'यह पक्षधर्मता है और यह अग्नि के साथ धूम की