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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 3216 यदप्यत्राहु: प्रस्त्ययमवभासः किन्त्वस्य प्रत्यक्षता चिन्त्या / प्रत्यक्षं हीन्द्रियव्यापारजं ज्ञानम् / तथा चोक्तं भवद्धिः “इन्द्रियाणां सत्संप्रयोगे बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम्" [ जैमि० अ० 1-1-4 ] प्रत्यक्षविषयत्वात् तदथस्य प्रत्यक्षता न तु साक्षादनिन्द्रियजत्वेन / तत्र घटादेबर्बाह्य न्द्रियज्ञानविषयत्वेन सर्वलोकप्रताता. ऽध्यक्षता, नत्वेवमात्मनः / . ' अथैवमुच्येत-नात्मनो घटादितुल्या प्रत्यक्षता, घटादेहि इन्द्रियजज्ञानविषयत्वेन सा व्यवस्थाप्यते, न त्वात्मा कस्यचित प्रमाणस्य विषयः / कथं तहि प्रत्यक्षः ? न ज्ञानविषयत्वात् प्रत्यक्षः, अपि त्वपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात् प्रत्यक्ष उच्यते, तच्च केवलस्य घटादिप्रतीत्यन्तर्गतस्य वाऽपरसाधनं प्राक प्रतिपादितम् / एतदप्यसत् , यतः अपरसाधनमिति कोऽर्थः ? -कि चिद्रूपस्य सत्ता, आहोस्वित् स्वप्रतीतों व्यापारः? यदि चिद्रपस्य सत्तैवात्मप्रकाशनमुच्यते तदा दृष्टान्तो वक्तव्यः / न चात्राऽऽशंकनीय 'अपरोक्षे दृष्टान्तान्वेषणं न कर्तव्यम्'-यतस्तथाविधे विवादविषये सुप्रसिद्धं दृष्टान्तान्वेषणं दृश्यते / ज्ञाता का ज्ञानकर्ता के रूप में, किन्तु दोनों में से किसी का भास ही नहीं होता यह बात नहीं है / सारांश, लिंगादि की अपेक्षा के विना भी बोधकर्तृ रूप में आत्मा का स्पष्ट प्रतिभास जब होता है तो आत्मा दृष्टि-अगोचर कैसे हुआ ? इस प्रतीति को स्मृतिरूप नहीं बता सकते, [ अर्थात् पूर्व-पूर्व अनादि वासना के प्रबोध से आत्मा का यह प्रतिभास स्मृतिरूप में होता रहता है, वास्तव में वह निविषयक ही है ऐसा नहीं कह सकते, ] क्योंकि स्मृतिज्ञान गृहीतविषय का पुनः ग्राहक होता है जब कि यहां जब जब आत्मा का भास होता है तब तब अपूर्व अर्थ को ही विषय करता हो ऐसा अनुभव में आता है अतः यह आत्मप्रतीति स्मृतिरूप नहीं है / तथा, यह प्रतीति अप्रमाण भी नहीं है क्योंकि इस प्रतीति के बाद कोई 'नास्ति आत्मा' ऐसा बाधज्ञान का उदय न होने से यह प्रतीति बाधमुक्त है। 'संशयरूप होने से अप्रमाण है' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि घटादि विषय का इन्द्रियजन्य प्रतिभास जैसे असंदिग्ध एवं निश्चयस्वरूप होता है, वैसे आत्मप्रतिभास भी संदिग्ध एवं निश्चयस्वरूप होता है। निष्कर्षः- 'अहम्' प्रतीति में भासित होने वाले आत्मा को अपरोक्ष मानना ही युक्त है, किंतु 'अहमाकार प्रतीति को अनुमानादिरूप मानकर आत्मा को अनुमानादि प्रमाणान्तर का विषय बताना' ठीक नहीं है / [ अहमाकार प्रतीति में प्रत्यक्षत्व विरोधी पूर्वपक्ष ] [संदर्भ 'यदप्यत्राहुः' इस पद का, दीर्घ पूर्वपक्ष के बाद तदप्यसंगतं' [ पृ. 327 ] इस पद के साथ अन्वय होगा ] यह जो कहा है पूर्वपक्षीः-अहमाकार भास तो होता है किंतु वह प्रत्यक्ष है या नहीं यह विचारना पड़ेगा। प्रत्यक्ष तो इन्द्रियव्यापारजन्य ज्ञान को ही कहा जाता है-जैसे कि आपके जैमिनीसूत्र में कहा है'इन्द्रियों के संबंध से प्रत्यक्षबुद्धि का जन्म होता है / ' तात्पर्य यह है कि इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष का विषय होने से ही कोई भी अर्थ प्रत्यक्ष कहा जाता है, साक्षात् यानी स्वत: अर्थात् इन्द्रिय से अजन्यज्ञान का विषय होने से कोई अर्थ प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता। अब देखिये कि बाह्य नेत्रादि इन्द्रिय से जन्यज्ञान का विषय होने से घटादि की प्रत्यक्षता सर्वलोक में सिद्ध है, किंतु आत्मा में ऐसी प्रत्यक्षता सर्वजनसिद्ध नहीं है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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