________________ 320 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च शरीरादीनां ज्ञातृता, यथाहि शरीराद व्यतिरिक्ता घटादयः प्रतीतिकर्मतया प्रतिभान्तिघटादयः, अहं घटादीनां ज्ञाता' एवं 'मम शरीरादयः अहं शरीरादीनां ज्ञाता' इत्येव च प्रतीतिकर्मत्वेन घटादिभिस्तुल्यत्वान्न शरीरादिसंघातस्य ज्ञातता। न च ज्ञात्रप्रतिभासः, तदप्रतिभासे हि 'ममैते भावाः प्रतिभान्ति नान्यस्य' इत्येवं प्रतिभासो न स्यात् / तदवभासापह्नवे च घटादेरपि कथं प्रतीतिः ? इयांस्तु विशेषः-एकस्य प्रतीतिकर्मता, अपरस्य तत्प्रतीतिकर्तृता, न त्वनवभासः। अतो लिंगाद्यनपेक्ष आत्माऽवभासोऽप्यस्तीति कथं तस्याऽदृष्टिः ? न चास्य प्रत्ययस्य बाधारहितस्याऽपूर्वार्थविषयस्याऽक्षजविषयावभासस्येवाऽसंदिग्धरूपस्य निश्चितरूपत्वेन प्रतिभासमानस्य स्मृतिरूपता अप्रामाण्यं वा प्रतिपादयितुयुक्तम् / अतोऽस्यामपि प्रतीताववभासमानस्याऽपरोक्षतैव युक्ता न प्रमाणान्तरगम्यता। है। ऐसा भी नहीं कह सकते कि यह 'अहं' ज्ञान बहिरिन्द्रिय के व्यापार से जन्य है / / अतः अन्तर्गत आत्मविषयक नहीं हो सकता। ], क्योंकि अन्धकार में किसी भी इन्द्रिय का व्यापार न होने पर भी 'अहं' प्रतीति का जन्म होता है।-"इन्द्रिय से नहीं, किन्तु शब्दश्रवण से या लिंगादि से 'अहं' प्रतीति होती है"-ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि विना ही शब्द सुने और लिगादि के दर्शन के विना भी 'अहं' प्रतीति का जन्म होता है। यह भी नहीं कह सकते कि-"रज्जु में सपं प्रतीति के समान ही उत्तरकाल में बाधित होने के कारण यह 'अहं'प्रतीति अप्रमाण है"क्याकि 'अहं'प्रतीति होने के बाद उत्तरकाल में उसके बाधक का अस्तित्व ही असिद्ध है। बौद्धमत के अवलम्बन से यदि ऐसा कहा जाय कि यह 'अहं'प्रतीति सविकल्पक प्रत्यक्षरूप है अत एव अप्रमाण है तो यह भी अयुक्त है क्योंकि 'सविकल्पक ज्ञान प्रमाण होता है' इस तथ्य का प्रतिपादन आगे किया जाने वाला है / यह भी जान लिजीये कि आत्मा की प्रतीति जैसे स्वतन्त्र रूप में होती है वैसे जब नेत्रादि बाह्य न्द्रिय भी व्यापाररत यानी कार्यरत होती है तब 'मैं घट को जानता हूं' इस प्रकार बाह्यविषय के साथ संलग्नरूप में भी आत्मा की प्रतीति होती है- यहां घट का जैसे विषयरूप में अनुभव होता है वैसे उसीवक्त अपनी आत्मा का भिन्नरूप से अनुभव होता ही है वह इस प्रकार कि विषय घटादि का कर्मरूप से और आत्मा का बोधकर्ता रूप से अनुभव होता है / [शरीरादि में ज्ञातृत्व नहीं हो सकता ] नास्तिकः-बोधकर्ता शरीर या इन्द्रियादि को ही मान लिजीये। प्रात्मवादी:-यह नहीं मान सकते / जैसे 'घटादि मेरे हैं' अथवा "मैं घटादि का ज्ञाता हूँ" इन प्रतीतियों में घटादि देह से भिन्न एवं कर्मरूप से प्रतिभासित होते हैं, उसी प्रकार 'शरीरादि मेरा है' अथवा "मैं शरीरादि का ज्ञाता हूँ" इन प्रतीतियों में शरीरादि भी घटादिवत् ज्ञाता से भिन्न और कमरूप से प्रतिभासित होते हैं, अतः पुद्गलसंघात स्वरूप देह में बोधकर्तृत्व नहीं मान सकते। ऐसा नहीं कह सकते कि--'ज्ञाता के रूप में किसी का भान ही नहीं होता'-क्योंकि यदि ज्ञाता का भास न होता हो ता "मुझे इन वस्तुओं का प्रतिभास हो रहा है, दूसरे को नहीं" इस प्रकार का प्रतिभास, जिसमें दूसरे से भिन्नरूप में अपना भान होता है, वह नहीं होगा। यदि इतना स्पष्ट ज्ञाता का भास होने पर भी उसका अपलाप करेंगे तो ज्ञाता के साथ कर्मरूप में जो घटादि भासित होते हैं उनका भास भी कैसे संगत होगा? इतना अंतर जरूर है कि घटादि का प्रतिभास ज्ञानकर्मरूप में होता है और