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________________ 230 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 भ्युपगमनान्तरीयकः व्यापकनिवृत्तितो व्याप्यनिवृत्तिरवश्यंभाविनी च प्रदर्श्यते तत्र यथाक्रमं प्रवृत्तिः, अत्र तु प्रत्यक्षत्वस्य सत्संप्रयोगजत्वेन, तस्य च विद्यमानोपलम्भनत्वेन, तस्यापि धर्मादिकं प्रत्यानिमित्त• त्वेन क्व व्याप्यव्यापकभावावगमो येन प्रसंग-तद्विपर्यययोः प्रवृत्तिः स्यात् ? ननूक्तमेवैतत् 'स्वात्मन्येव'...., सत्यम् उक्तं न तु युक्तमुक्तम् , अयुक्तता च सर्व चक्षुरादिकरणग्रामप्रभवं प्रत्यक्षं संनिहितदेशकालपदार्थान्तरस्वभावाविप्रकृष्ट प्रतिनियतरूपादिग्राहकं सर्वत्र सर्वदा चेति न व्याप्यव्यापकभावग्राहकं प्रमाणमस्ति, विपर्ययश्चोपलभ्यते-योजनशतविप्रकृष्टस्यार्थस्य ग्राहक,संपातिगृध्रराजप्रत्यक्षं रामायण-भारतादौ भवत्प्रमाणत्वेनाऽभ्युपगते श्रूयते, तथेदानीमपि गृधवराह-पिपीलिकादीनां चक्षुः-श्रोत्र-घ्राणजस्य प्रत्यक्षस्य यथाक्रमं रूप-शब्द-गन्धादिषु देशविप्रकृष्टेषु प्रवत्तिरुपलभ्यते, तथा कालविप्रकष्टस्याप्यतीतकालसंबन्धित्वस्य पूर्वदर्शनसम्बन्धित्वस्य च स्मरणसव्यपेक्षलोचनादिजन्यप्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षग्राह्यत्वं पुरोव्यवस्थितेऽर्थे भवताऽभ्युपगम्यते / अन्यथा, [श्लो० वा० सू०४ / 233-34 ] 'देशकालादिभेदेन तदास्त्यवसरो मितेः' // 'इदानींतनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम् / ' इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्याऽगृहीतार्थाधिगन्तृत्वं पूर्वापरकालसंबन्धित्वलक्षणनित्यत्वग्राहकत्वं च प्रतिपाद्यमानमसंगतं स्यात् / भाव के बीच व्यापक-व्याप्यभावरूप संबंध सिद्ध हो तब यह दिखाया जाता है कि 'व्याप्य का स्वीकार व्यापक के स्वीकार विना नहीं हो सकता' / और प्रसंगसाधन के बाद विपर्यय की प्रवृत्ति तब होती है जब 'व्यापक यदि निवृत्त होगा तो व्याप्य अवश्य निवृत्त होगा' यह दिखाया जाय / प्रस्तुत में-आपने प्रत्यक्षत्व और 'सत् वस्तु के साथ सन्निकर्ष से जन्यत्व' इन दोनों में, तथा सत्संप्रयोगजन्यत्व और विद्यमानोपलम्भनत्व इन दोनों में, और 'विद्यमानोपलम्भनत्व' तथा 'धर्मादि के प्रति अनिमित्तत्व' इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव का ज्ञान ही कहाँ दिखाया है जिस से प्रसंग और विपर्यय की प्रवृत्ति को अवकाश प्राप्त हो! [किंचिज्ज्ञता और वक्तृत्व की व्याप्ति असिद्ध ] यदि कहें कि-'किंचिज्ज्ञता यानी अल्पज्ञता अथवा रागादिमत्ता के साथ वक्तृत्व का व्याप्यव्यापकभाव हमारे ही आत्मा में दृष्ट है....इत्यादि कथन द्वारा व्याप्यव्यापकभाव तो हमने प्रदर्शित किया ही है' इत्यादि....वह आपने कहा तो है, उसका हम इनकार नहीं करते, किंतु युक्तियुक्त नहीं कहा है / वह इस प्रकार-इस बात में कोई प्रमाण नहीं है कि "नेत्रादि इन्द्रियसमूह से उत्पन्न होने वाला सभी प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वत्र सर्वकाल में, ऐसे ही रूप-रसादि प्रतिनियत विषय को ग्रहण करते हैं जो विषय संनिहितदेश से विप्रकृष्ट यानी दूरवर्ती न हो, संनिहितकाल से विप्रकृष्ट यानी दूरवर्ती न हो तथा सैनिहित पदार्थान्तर से उस विषय का स्वभाव विप्रकृष्ट यानी आवृत न हो गया हो।'- तात्पर्य, 'प्रत्यक्षज्ञान केवल निकटदेशकालवर्ती एवं अनावृत पदार्थ को ही ग्रहण करे' इस बात में कोई प्रमाण नहीं है / बल्कि इससे विपरीत भी जानने में आया है जैसे, कि-आपके लिये प्रमाणभूत रामायण और महाभारत में 'संपाति-जटायु को सेंकडो योजन दूर रहे हुए अर्थ का प्रत्यक्ष होता था'-ऐसा सुना जाता है। तथा इस युग में भी गीध आदि पक्षी के नेत्र की दूरदेशवर्ती रूप प्रत्यक्ष में प्रवृत्ति, डुक्कर के श्रोत्र की दूरदेशवर्ती शब्द के प्रत्यक्ष में प्रवृत्ति और चिटीयों के घ्राणेन्द्रिय की दूरदेशवर्ती गन्ध के प्रत्यक्ष वत्ति उपलब्ध होती है। यह देश की बात हयी / अब काल की बात
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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