________________ 532 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ यद्वा-"मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत् तापजिताः" इत्येतस्य दुर्नयस्य निरासार्थमाह सूरि:'ठाणमणोवमहमूवगयाणं'। अत्र च स्थानमनपमसुखम् प्रकर्षण प्रपुनरावृत्त्या गतानाम्-उपगतानामिति व्याख्येयम् / अथवा "बुद्धचादीनां नवानां विशेषगुणाननामात्यन्तिकः क्षयः आत्मनो मुक्तिः" इति मतव्यवच्छेदार्थमाचार्येरण 'ठाणमणोवमसुहमुमवगयाणं' इति सूत्रमुपन्यस्तम् / अस्य चायमर्थःस्थितिः स्थानं स्वरूपप्राप्तिः. तद अनपमसखम 'उप' इति सकलकर्मक्षयानन्तरमव्यवधानेन गतानां प्राप्तानाम्-शैलेश्यवस्थाचरमसमयोपादेयभूतमनन्तसुखस्वभावमात्मनः कथंचिदनन्यभूतं स्वरूप प्राप्तानामिति यावत् / [ आत्म-विभुत्वस्थापनपूर्वपक्षः] अत्राहुः वैशेषिकाः-सर्वमेतदनुपपन्नम् , प्रात्मनो विभुत्वेन विशिष्टस्थानप्राप्तिनिमित्तगत्यसंभवात् , कर्मक्षये च शरीराद्यभावे मुक्तात्मनां सुखस्य तद्धेतुनिमित्ताऽसमवायिकाररणाभावेनोत्पत्त्यसंभवात , नित्यस्य चानन्दस्याऽवैषयिकस्यानुपलम्भेनाऽसत्त्वात् / न चाऽऽत्मनो विभुत्वमसिद्धम् , अनुमानात् तत्सिद्धः / तथाहि-बुद्ध्यधिकरणं द्रव्यं विभु, नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात् यद् यद् नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानं तत् तद् विभु यथाऽऽकाशम् , तथा च बुद्ध्यधिकरणं द्रव्यं, तस्माद् विभुः / न च बुद्धेर्गुणत्वाऽसिद्धहेतुविशेषणाऽसिद्ध्या हेतोरसिद्धिरभिधातु शक्या, बुद्धिगुणत्वस्यानुमानात् सिद्धेः / तथाहि और सकल व्याघात शून्य एवं अन्य सभी सुखों को टक्कर मारने वाला है, अत एव जिसको किसी की उपमा नहीं दी जा सकती, ऐसा सुख जहाँ है वैसा स्थान / 'उप' यानी काल का समीप्य, अर्थात् निकट के काल में ही जो वहाँ गये, अर्थात् जिन्होंने वह स्थान प्राप्त किया है / ( अर्थात् अल्पकाल में जो वहाँ जाने वाले हैं ) अथवा 'उप' इस उपसर्ग शब्द का 'प्रकर्ष' अर्थ भी उपलब्ध है जैसे 'उपोढराग' इस प्रयोग में। इसलिये, अनुपमसुखवाले स्थान को प्रकृष्टरूप से जिन्होंने प्राप्त किया है। यहाँ 'उपगतवताम् , ऐसा वत्प्रत्ययान्त प्रयोग न करके 'उपगतानां' ऐसा जो प्रयोग किया है वह इस न्याय के अनुसरण से कि 'वत् प्रत्यय के विना भी अन्यार्थ में प्रयुक्त शब्द उसी अर्थ का बोधक होता है' [ जो वत् प्रत्ययान्त से बोधित होता है ] / इससे यह कहना है कि वर्तमान में अनुभवारूढ तीर्थंकर नाम कर्म का अंश विद्यमान होने पर भी मानों कि वे वहाँ पहुंच गये न हो। तात्पर्य, 'अनुपम सुख के स्थान को प्राप्त' ऐसा कह देने पर भी (वास्तव में जीवन्मुक्तावस्था पूर्ण नहीं हुई है इसलिये) इस अवस्था में शासनस्थापना का कार्य संगतियुक्त ही है। [आत्मविभुत्व, मुक्ति में सुखाभाव-मतद्वय का निरसन ] अथवा, जिन लोगों का मत ऐसा है कि "आकाश की तरह मुक्तात्मा भी तापरहित होकर सर्वत्र रहते हैं"-इस दुर्नय के निरसनार्थ सूरीश्वरजीने 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' ऐसा सूत्र बनाया है। उस का अर्थ अब यह होगा कि अनुपम सुखवाले स्थान में 'वापस न लौटना पड़े' ऐसे प्रकर्ष से जो चले गये हैं अर्थात् अब यहां संसार में नहीं रहे हैं / अथवा, जिन लोगों का ( न्याय-वैशेषिकों का ) मत ऐसा है "सुखसहित बुद्धि आदि नव विशेषगुणों का अत्यन्त नाश हो जाना यही आत्मा को मुक्ति है" इस मत के उच्छेदार्थ आचार्य श्री ने 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' ऐसा सूत्र बनाया है / उसका अर्थ यह है-स्थिति यही स्थान है, अर्थात् अपने ही स्वरूप में स्थिति अथवा अपने स्वरूप की प्राप्ति /