________________ 464 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 स्वादसौ तत्सम्बन्धी, अक्षणिकत्वे जनकत्वविरोधस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / क्षणिकत्वेऽपि तयोरेकसामग्रयधीना नरन्तर्योत्पत्तिरेव, नापरः संयोग इति 'रचनावत्त्वात्' इत्यत्र हेतोविशेषणस्य संयोगविशेषस्य रचनालक्षणस्याऽसिद्धेस्तद्वतो विशेष्यस्याप्यसिद्धिरिति स्वरूपाऽसिद्धत्वम्। अथ प्रथिव्यादेः कार्यत्वं बौद्धैरभ्युपगम्यत एवेति नाऽसिद्धत्वं तैरस्य हेतोः प्रेरणीयम् / नन्वत्रापि यादृग्भूतं बाद्धमत्पूवकत्वेन देवकुलादिष्वन्वय-व्यतिरेकाभ्यां व्याप्त कायंत्वमपलब्धम यक्रियादशिनोऽपि जीर्णदेवकुलादावुपलभ्यमानं लौकिक परीक्षकादेस्तत्र कृतबुद्धिमुत्पादयति-ताहरभूतस्य क्षित्यादिषु कार्यत्वस्याऽनुपलब्धरसिद्धः कार्यत्वलक्षणो हेतुः / उपलम्भे वा तत्र ततो जीर्णदेवकुलादिष्विवाऽक्रियादशिनोऽपि कृतबुद्धिः स्यात् / न ह्यन्वय व्यतिरेकाभ्यां सुविवेचितं कार्य कारणं व्यभिघरति, तस्याऽहेतुकत्वप्रसंगात् / अतः क्षित्यादिषु कार्यत्वदर्शनाद क्रियाशिनः कृतबुद्धयनुपपत्तेर्यद बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्त कार्यत्वं देवकुलादिषु निश्चितं तत् तत्र नास्तोत्यसिद्धो हेतुः, केवलं कार्यत्वमात्र प्रसिद्धं तत्र। वाले पथ्वी आदि पदार्थ से भिन्न कोई संयोग मानना संगत नहीं है क्योंकि उसकी मान्यता उपरोक्त रीति से बाधक प्रमाण का विषय बन जाती है और साधक प्रमाण तो उद्योतकर आदि ने जितने बताये वे सब निरस्त हो जाने से कोई साधक प्रमाण भी अब नहीं बचा है। [ संयोग का वचनप्रयोग वस्तुद्वयमूलक ही है ] ऐसा जो वचन प्रयोग होता है कि 'ये दो द्रव्य संयुक्त हैं' अथवा 'इन दोनों का यह संयोग है' इत्यादि वह भेदान्तर के प्रतिक्षेप और अप्रतिक्षेप से विशिष्ट अवस्था में उत्पन्न वस्तुद्वय मूलक ही है, अतः उन से अतिरिक्त संयोग की सिद्धि शक्य नहीं है / दूसरी बात, वस्तुद्वय यदि क्षणिक नहीं हैं, तब तो चिर काल तक संयोग उन दोनों का सम्बन्धी नहीं हो सकता क्योंकि उनके साथ सम्बद्ध रहने के लिये अपर सम्बन्ध की आवश्यकता रहेगी, वहाँ समवाय को सम्बन्ध नहीं मान सकते क्योंकि उसका खण्डन किया गया है और आगे भो होने वाला है। यह भी नहीं कह सकते कि वस्तद्वय से जन्य होने से उन वस्तूद्वय का वह सम्बन्धो हो सकेगा, क्योंकि अक्षणिक वस्तु में जनकता ही विरोधग्रस्त है यह आगे दिखाया जायेगा / यदि वस्तुद्वय को क्षणिक मान लगे तब तो जिस सामग्री से सयोग की उत्पत्ति आपको मान्य है उस सामग्री से वह वस्तुद्वय ही नैरन्तयविशिष्ट उत्पन्न हो जायेगी जो संयुक्तबद्धि और संयुक्तव्यपदेश का निमित्त भी बनेगी, अत: स्वतन्त्र संयोग पदार्थ संगांतमान् नहीं है / अत: 'रचना वत्त्व' हेतु में रचनारूप संयोगविशेष को विशेषण किया गया है वही असिद्ध होने से तद्वान् विशेष्य भी असिद्ध हो जाता है अर्थात् आपका 'रचनावत्त्व' हेतु असिद्ध है। [ कृतवुद्धिजनक कार्यन्व पृथ्वी आदि में असिद्ध ] नैयायिकः-जब आप बौद्धमत का अवलम्बन करके 'रचनावत्त्व' का खण्डन करते हैं तब भी आप कार्यत्व हेतु को असिद्ध नहीं कह सकते / कारण, रचनावत्त्व हेतु तो हमने पृथ्वी आदि में जिस को कार्यत्व असिद्ध है उसको सिद्ध कर दिखाने के लिये कहा है / बौद्ध मत में 'अभूत्वाभवन' स्वरूप कार्यत्व तो पृथ्वो आदि में प्रसिद्ध ही है अतः आप कार्यत्व हेतु को असिद्धि नहीं दिखा सकते हैं। उत्तरपक्षीः-ठीक बात है, किन्तु जैसा कार्यत्व बुद्धिमत्कर्तृत्व का व्याप्य है वैसा कार्यत्व क्षिति आदि में बौद्ध भी नहीं मानते हैं / देवकुलादि में अन्वय-व्यतिरेक से बुद्धिमत्पूर्वकत्व से व्याप्त ऐसा