________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० समवाय० 463 स्तर्हि संयोगशक्त्युत्पादनेऽप्यपरसंयोगशक्तिव्यतिरेकेण नासौ प्रवर्तते इत्यपरा संयोगशक्तिः परिकल्पनीया, तत्राप्यपरेत्यनवस्था। अथ तामन्तरेणाऽपि शक्तिमत्पादयन्ति तहि कार्यमपि तामन्तरेणैवांकरादिकं निवर्तयिष्यन्तीति व्यर्थ संयोगशक्तेस्तदन्तरालवत्तिन्याः कल्पनम् / न च विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण पृथिव्यादयः संयोगशक्तिमपि निवर्तयितु क्षमाः, तथाऽभ्युपगमे सर्वदा तन्निवर्तनप्रसंगादंकुरादेरप्यनवरतोत्पत्तिप्रसंगः / न चान्यतरकर्मादिसव्यपेक्षाः संयोगमुत्पादयन्ति क्षित्यादयः इति नायं दोषः, कर्मोत्पतावपि संयोगपक्षोक्तदूषणस्य सर्वस्य तुल्यत्वात् / तस्मादेकसामग्र्यधीनविशिष्टोत्पत्तिमत्पदार्थव्यतिरेकेण नापरः संयोगः, तस्य बाधकप्रमारणविषयत्वात् साधकप्रमाणाभावाच्च / यस्तु 'संयुक्ते द्रव्ये एते' इति, 'अनयोर्वाऽयं संयोगः' इति व्यपदेशः स भेदान्तरप्रतिक्षेपाऽप्रतिक्षेपाभ्यां (?) तथाऽवस्थोत्पन्नवस्तुद्वयनिबन्धन एव, नाऽतोऽपरस्य संयोगस्य सिद्धिः / न चाऽक्षणिकत्वे तयोः स सम्बन्धी युक्तः / तत्सम्बन्धस्य समवायस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमाणत्वाच्च / न च तज्जन्य [विशिष्ट अवस्थावाले क्षिति-बीज-जलादि से अंकुर जन्म ] उद्योतकरने जो यह कहा था-'विशिष्टावस्था के विना पृथ्वी, बीज और जलादि अंकुरोत्पादन नहीं कर सकता / जो यह विशिष्टावस्था यहाँ आवश्यक है उसी शक्ति का नाम संयोग है' यह बात भी असार है, संयोग कोई नित्य पदार्थ तो नहीं है अत: असकी उत्पत्ति के लिये भी संयोग से अतिरिक्त विशिष्टावस्थावाले पृथ्वी आदि को कारण मानना होगा, तब उचित यह है कि विशिष्टावस्थावाले पृथ्वी आदि को सीधे ही अंकुरादि कार्योत्पत्ति के कारण माने जाय, बीच में संयोगशक्ति की उत्पत्ति की कल्पना व्यथ क्यों की जाय ? - नैयायिक:-संयोगशक्ति के विना कार्योत्पत्ति में कारणसमूह प्रवृत्त नहीं हो सकता इसलिये संयोग का आग्रह है। उत्तरपक्षी:-तब तो संयोगशक्ति के उत्पादन में भी वह कारणसमूह अन्यसंयोगशक्ति के विना प्रवृत्त नहीं हो सकेगा, अत: अन्य संयोगशक्ति की कल्पना करनी पडेगी, फिर उस संयोग की उत्पत्ति के लिये भी अन्य अन्य संयोगशक्ति की कल्पना करते ही जाओ, कहीं अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि कारणसमूह प्रथम संयोगशक्ति को द्वितीय शक्ति के विना ही उत्पन्न कर लेगा, तब तो यह भी कहो कि प्रथम संयोगशक्ति के विना ही कारणसमूह अंकुरादि को भी उत्पन्न कर सकेगा, व्यर्थ ही बीच में संयोगशक्ति की कल्पना क्यों करते हो? यह भी तो सोचिये कि पृथ्वी आदि कारणसमूह विशिष्टावस्था के विना संयोग को भी उत्पन्न नहीं कर सकता है, यदि विशिष्टवस्था के विना ही संयोग की उत्पत्ति मान लेंगे तब तो हमेशा संयोग की उत्पत्ति और तन्मूलक अंकुरादि की उत्पत्ति होती ही रहेगी। नैयायिकः-हम तो मानते ही हैं कि पृथ्वी आदि किसी में भी क्रिया उत्पन्न हो जाय तब उस क्रिया का सहकार रूप विशिष्टावस्थावाले पृथ्वी आदि से संयोग की उत्पत्ति होती है, अत: हमेशा संयोग की उत्पत्ति का दोष नहीं लग सकता। उत्तरपक्षी:-संयोगशक्ति की पृथ्वी आदि से उत्पत्ति मानने में जो दोष दिखाये हैं वे सब समानरूप से कर्म की उत्पत्ति में भी अब लागू होंगे / अत: जिस सामग्री से आप कर्म की या संयोग की उत्पत्ति मानेंगे, उसी सामग्री से हम विशिष्ट पथ्वी आदि की उत्पत्ति मान लेंगे अतः विशिष्टोत्पत्ति