SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 498
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्षः 465 न च प्रकृत्या परस्परमर्थान्तरत्वेन व्यवस्थितोऽपि धर्मः शब्दमात्रेणाऽभेदी हेतुत्वेनोपादीयमानोऽभिमतसाध्यसिद्धये पर्याप्तो भवति, साध्यविपर्ययेऽपि तस्य भावाऽविरोधात् , यथा वल्मीके मिणि कुम्भकारकृतत्वसिद्धये मृद्विकारमात्रं हेतुत्वेनोपादीयमानमिति / यद् बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रमाणतः प्रसिद्धं, तच्च क्षित्यादावसिद्धं यच्च क्षित्यादौ कार्यत्वमात्रं हेतुत्वेनोपन्यस्यमानं सिद्धं तत् साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् संदिग्धव्यतिरेकत्वेनानकान्तिकम् , न ततोऽभिमतसाध्यसिद्धिः। नन्वेतत् कार्यसमं नाम जात्युत्तरम् / तथाहि-'कृतकत्वादनित्यः शब्दः' इत्युक्ते जातिवाद्यत्रापि प्रेरयति-किमिदं घटादिगतं कृतकत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं कि वा शब्दगतम् अथोभयगतमिति ? प्राद्ये पक्षे हेतोरसिद्धिः न ह्यन्यधर्मोऽन्यत्र वर्तते / द्वितीयेऽपि साधनविकलो दृष्टान्तः / तृतीयेऽप्येतावेव दोषाविति / एतच्च कार्यसमं नाम जात्युत्तरमिति प्रतिपादितम् यथोक्तम् , 'कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत् साध्याऽसिद्धि दर्शनं तत् *कार्यसमम्' [ ] इति / कार्यत्वसामान्यस्याऽनित्यत्वसाधकत्वेनोपन्यासेऽभ्युपगते धमिभेदेन विकल्पवद् बुद्धिमत्कारणत्वे क्षित्यादेः कार्यत्वमात्रण साध्येऽभीष्टे धमिभेदेन कार्यत्वादेविकल्पनात्। कार्यत्व उपलब्ध होता है कि जिन्होंने उत्पत्ति क्रिया को नहीं देखी है उन साधारण लोग और परीक्षक लोगों को भी जीर्ण देवकुलादि में वैसे कार्यत्व को देख कर 'यह किसी का बनाया हुआ है'-ऐसी कर्तृजन्यत्व की बुद्धि उत्पन्न होती है / ऐसा कार्यत्व रूप हेतु क्षिति आदि में उपलब्ध नहीं होने से असिद्ध है / यदि वहाँ वैसा कार्यत्व होता तब तो उत्पत्ति क्रिया न देखने पर भी जीर्णदेवल आदि को देखकर जैसे निर्विवाद सभी को कृतबुद्धि होती है वैसे क्षिति आदि में भी सभी को होती / कार्य की यदि अन्वयव्यतिरेक से जाँच पड़ताल की गयी हो तो वह कार्य बाद में कभी कारण का व्यभिचार नहीं दिखाता / नहीं तो उसमें अहेतुजन्यत्व की आपत्ति लगेगी। इस कारण से, क्षिति आदि में कार्यत्व को देखने पर उत्पत्तिक्रिया न देखने वाले को कृतबुद्धि उत्पन्न न होने से, यह सिद्ध होता है कि जैसा कार्यत्व देवकुलादि में बुद्धिमत्पूर्वकत्व के व्याप्यरूप में सुनिश्वित है वैसा कार्यत्व क्षिति आदि में नहीं ही है / इस प्रकार आपका कार्यत्व हेतु असिद्ध ही है। केवल व्याप्तिशून्य कार्यत्व क्षिति आदि में प्रसिद्ध है इसका कोई इनकार नहीं करता। [कार्यत्व हेतु की असिद्धि का समर्थन ] स्वभाव से जो धर्म परस्पर में भिन्नरूप से अवस्थित होते हैं उनमें शब्दमात्र का अभेद हो इतने मात्र से उसको हेतु कर देने पर इष्ट साध्य की सिद्धि में वह समर्थ नहीं बन जाता। क्योंकि साध्य का अभाव होने पर भी उस हेतु के वहाँ होने में कोई विरोध नहीं है / उदा० वल्मीक (=दीमकों के द्वारा लगाये गये मिट्टी के ढेर ) में कुम्भकारकर्तृत्व साध्य सिद्ध करने के लिये मिट्टी के घट को दृष्टान्त बनाकर मृद्विकारत्व ( मिट्टी के विकार ) को हेतु किया जाय तो उतने मात्र से वल्मीक में कुम्भकारकर्तृत्व सिद्ध नहीं हो जाता / अतः यह विवेक करना चाहिये कि बुद्धिमत्कारणत्व से व्याप्त जो कार्यत्व है वह देवलादि में प्रमाणसिद्ध है किन्तु क्षिति आदि में असिद्ध है, क्षिति आदि में हेतुरूप से प्रयुज्यमान जैसा कार्यत्व सिद्ध है उसमें साध्याभावसामानाधिकरण्य की शंका की जाय तो उसका न्याय दर्शन के 5.1-37 सूत्र में कार्यसम का अन्य ही उदाहरण प्रस्तुत है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy