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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 असदेतत्-यतः सामान्येन कार्यत्वाऽनित्यत्वयोविपर्यये बाधकप्रमाणबलात् व्याप्तिसिद्धौ कार्यत्वसामान्यं शब्दादौ मिण्युपलभ्यमानमनित्यत्वं साधयतीति कार्यत्वमात्रस्यैव तत्र हेतुत्वेनोपन्यासे मिविकल्पनं यत् तत्र क्रियेत तत् सर्वानुमानोच्छेदकत्वेन कार्यसमजात्युत्तरतामासादयति, न त्वेवं क्षित्यादेबुद्धिमत्कारणत्वे साध्ये कार्यत्वसामान्यं हेतुत्वेन सम्भवति तस्य विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनाऽनैकान्तिकत्वात् / यच्च बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन व्याप्तं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रतिपन्नम्-यद क्रियाशिनोऽपि जीर्णप्रासादादौ कृतबुद्धिमुत्पादयति-तत् तत्राऽसिद्धमिति प्रतिपादितम् / निवारक कोई बाधक प्रमाण न होने से वैसा संदिग्धव्यतिरेक वाला कार्यत्व हेतु अनैकान्तिक हो जाता है अतः उससे इष्ट साध्य की सि [कार्यसम जात्युत्तर की आशंका ] नैयायिक यहाँ कार्यसम नामक जाति-उत्तर की शंका करता है-[ असद् असमीचीन उत्तर को जाति-उत्तर कहते हैं ] जैसे कि - 'शब्द अनित्य है क्योंकि कृतक (प्रयत्नजन्य) है' यहाँ असद् उत्तर देने वाले ऐसे विकल्प करते हैं-घटादिआश्रित कृतकत्व को यहाँ हेतु करते हैं या शब्दाश्रित कृतकत्व को अथवा घट-शब्द उभयगत कृतकत्व को हेतु करते हैं ? यदि घट के कृतकत्व को हेतु करेंगे तो वह पक्षभूत शब्द में न होने से स्वरूपासिद्धि दोष लगेगा, क्योंकि घट का ही जो धर्म है वह घटेतर शब्दादि में नहीं रह सकता / यदि शब्दगत कृतकत्व को हेतु करेंगे तो घटादि दृष्टान्त में शब्दगत कृतकत्व न होने से दृष्टान्त साध्यशून्य बन जायेगा यह दोष होगा। शब्द-घट उभयगत कृतकत्व को हेतु करेंगे तो एक एक विकल्प में कहे गये दोनों दोष आ पडेंगे / इसी को कार्यसम नामक असद् उत्तर कहते हैं जैसे कि कहा गया है-कार्यत्व के अन्यत्वलेश ( अर्थात् भेद विकल्प ) से साध्य की असिद्धि का प्रदर्शन करना यह कार्यसम (जाति) है / आशय यह है कि सामान्य कार्यत्व को हेतु करके ही अनित्यत्व की सिद्धि अभिप्रेत है, कार्यत्वविशेष के दो-तीन विकल्प करके जो प्रत्युत्तर देता है ( अर्थात् अनित्यत्व का खण्डन करता है ) यही कार्यसम असद् उत्तर हो जाता है। नैयायिक कहता हैं कि प्रस्तुत हमारे कार्यत्व हेतु को भी आप ऐसे ही तोड रहे हैं अनित्यत्व के साधकरूप में सामान्यतः कार्यत्व हेतु के अभिप्राय होने पर कार्यत्व के धर्मी (घट-शब्दादि) का भेद करके जैसे विकल्प किये जाते हैं उसी तरह क्षिति आदि में सामान्यतः कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारणत्व को सिद्ध करने का हमारा अभिप्राय होने पर आप कार्यत्व के धर्मीयों ( देवकुल-क्षित्यादि ) का भेद करके कार्यत्व हेतु के विकल्प करते हैं, अतः यह भी असद् उत्तर ही फलित हुआ। [ कार्यसमत्व की आशंका का प्रत्युत्तर ] नैयायिकों की यह बात ही गलत है। कार्यसमजाति के उदाहरण के साथ हमारे उत्तर में जो साम्य दिखाया है वही असिद्ध है-उदाहरण में तो नित्यत्व के साथ सामान्यतः कार्यत्व की व्यप्ति में वैपरीत्य का उद्भावन करें तो वहाँ बाधक प्रमाण के बल से वैपरीत्य को हटाकर व्याप्ति सिद्ध की जा सकने से शब्दादि धर्मी में उपलब्ध कार्यत्वसामान्य हेतु द्वारा अनित्यत्व की सिद्धि की जा सकती है / अतः यहाँ हेतुरूप से उपन्यस्त कार्यत्वमात्र के धर्मी का भेद करके यदि पूर्वोक्त रीति से
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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