________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः - 566 नापि द्वीपान्तरवत्तिमुक्तादिसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानं तं प्रत्युपसर्पणहेतुः, विकल्पानुपपत्तेः।। तथाहि-यथा वायुः स्वयं देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवान् अन्येषां तृणादीनां तं प्रत्युपसर्पणहेतुस्तथा यद्यदृष्ट, मपि तं प्रत्युपसर्पत स्वयमन्येषां तं प्रत्युपसर्पणहेतुः तथा सति अदृष्टस्येव मुक्तादेरपि तथैव तं प्रत्युपसर्पणाऽविरोधाद व्यर्थमदृष्टपरिकल्पनम् / तथाभ्युपगमे च 'यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पति तद् देवदत्तगुणाकृष्टं तं प्रत्युपसर्पणात्' इति हेतुरनैकान्तिकः अदृष्टेनैव / वायुवच्च सक्रियत्वमदृष्टस्य गुणत्वं बाधते।' शब्दवच्चापरस्योत्पत्तावपरमदृष्टं निमित्तकारणं तदुत्पत्तौ प्रसक्तम् , तत्राप्यपरमित्यनवस्था, अन्यथा शब्देऽपि किमदृष्टलक्षणनिमित्तपरिकल्पनया ? अदृष्टान्तरात् तस्य तं प्रत्युपसर्पणे तदप्यदृष्टान्तरं तं प्रत्युपसर्पत्यदृष्टान्तरात, तदपि तदन्तरादित्यनवस्था / सभी चिजों के आकर्षण की आपत्ति नहीं होगी-तो यह कल्पना भी अयुक्त है क्योंकि देवदत्त के शरीर के आरम्भक परमाणु ( नित्य होने से ) देवदत्तादृष्टजन्य नहीं है तो उनका देवदत्त के प्रति आकर्षण : न होने को आपत्ति आ जायेगी। फिर भी यदि उन परमाणुओं का आकर्षण मानेंगे तो परमाणुवत् / ही देवदत्त-अदृष्ट से अजन्य सभी चीजों के आकर्षण को पूर्वोक्त आपत्ति लगी ही रहेगी। जब आप मानते हैं कि दण्डादि और अदृष्ट में घट के प्रति कारणता समान होने पर भी घटोत्पत्तिदेश में विद्यमान रहकर ही दण्डादि घटादि कार्यों को उत्पन्न करता है जब कि दूरवर्ती अदृष्ट उस देश में संनिहित न रहने पर भी घटादि कार्य को उत्पन्न करता है-इसी तरह अन्य वादी भी नेत्र के लिये मान सकते हैं कि नेत्र और अन्य त्वचादि इन्द्रियों में बाह्य न्द्रियत्व समान होने पर भी त्वचादि / इन्द्रिय, संयुक्त अर्थ को ही प्रकाशित करता है जब कि नेत्रेन्द्रिय अपने से असंयुक्त अर्थ को भी प्रकाशित करता है-ऐसा माने तो क्या अयुक्त है ?! .. [अन्यत्र वर्तमान अदृष्ट की हेतुता अनुपपन्न ] -यदि ऐसा कहें कि-देवदत्तसंयुक्तात्मप्रदेशों में नहीं किन्तु अन्यद्वीपवर्ती मोतीयों से संयक्त आत्मप्रदेशों में विद्यमान अदृष्ट ही देवदत्त के प्रति मोतीयों के आकर्षण में हेतु है-तो यह भी विकल्पसह न होने से अयुक्त है। जैसे देखिये-(१) मोतीसमूहसंयुक्त आत्मप्रदेशों में विद्यमान अदृष्ट देवदत्त के प्रति स्वयं आकृष्ट होता हुआ मोतीयों को देवदत्त के प्रति खिंच लाता है ? (2) या वहाँ रहा हुआ ही मोतीयों को देवदत्त के प्रति धकेल देता है ? पहले विकल्प में यदि कहा जाय कि जैसे वाय स्वयं देवदत्त के प्रति आता हुआ अन्य तृणादि को उसके प्रति खिंच लाता है उसी तरह अदृष्ट भी स्वयं देवदत्त के प्रति खिच ले जाता है-तो ऐसा कहने पर अदृष्ट की कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि दि आप स्वतः आकर्षणक्रिया मान लेते हैं तो मोतीयों में भी स्वत: आकर्षणक्रिया मानी जाय उसमें कोई विरोध नहीं है, फिर उनके आकर्षण के लिये अदृष्ट की कल्पना क्यों करें ? तदुपरांत, 'जो देवदत्त के प्रति खिंचा जा रहा है वह देवदत्त के गुण से आकृष्ट है क्योंकि वह देवदत्त के प्रति ही आकृष्ट होता है' इस अनुमान का हेतु 'देवदत्त के प्रति खिचा जाना'-यह अहाटस्थल में ही साध्यद्रोही बन जायेगा, क्योंकि अदृष्ट देवदत्त की ओर खिंचा जाता है फिर भी वह देवदत्त के किसी भी गण से आकृष्ट नहीं होता। . तदुपरांत, जब आप वायु की तरह अदृष्ट को स्वतः गमनक्रियाशील मानेंगे तो उसकी गुणरूपता का भंग हो जायेगा। यदि उस को गतिशील न मानना पडे इस लिये आप शब्द की तरह