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________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाण० 105 योगिनो ग्रहणे तथाभूतस्य तस्य स्मरणं नान्यथा, प्रत्यक्षेण च पूर्वप्रवृत्तेन वस्तत्वन्तराऽसंसृष्टप्रतियोगिग्रहणे पुनरप्यभावप्रमाणपरिकल्पनं व्यर्थम् / 'वस्त्वसंकरसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यसमाश्रया // ' [ श्लो० वा० सू० 5, अभाव प० श्लो० 2 ] इत्यभिधानात् तदर्थं तस्य परिकल्पनम्, तच्च प्रत्यक्षेणैव कृतमिति तस्य व्यर्थता। प्रथाऽत्राप्यभावप्रमाणसंपाद्यः प्रतियोगिनोवस्त्वन्तराऽसंसष्टताग्रहस्तर्हि तथाभूतप्रतियोगिप्रहणे तथाभूतस्य तस्य स्मरणम्, तत्सद्भावे चाऽभावप्रमाणप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तस्याऽसंसृष्टताग्रहः, तद्ग्रहे च स्मरणमित्येवं चक्रकचोद्यं भवन्तमनुबध्नाति / नापि वस्तुमात्रस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणमित्यभिधातु शक्यम्, तथाभ्युपगमे तस्य वस्त्वन्तरत्वासिद्धेः, प्रतियोगिनोऽपि प्रतियोगित्वस्य च, इति न प्रतियोगिनो नियतरूपस्य स्मरणमिति सुतरामभावप्रमाणोत्पत्त्यभावः / -[प्रतियोगिस्मरण से अभावप्रमाण की व्यवस्था दुर्घट ] प्रतियोगीस्मरण को निमित्त कहा गया है वहाँ भी दो विकल्प सावकाश है प्रथम विकल्पप्रतियोगी का स्परण अन्य वस्तु (भूतलादि) से संसृष्टरूप में मानना ? या दूसरा विकल्प उस से असंसृष्ट मानना ? अगर संसृष्टरूप में माना जाय तो पहले कहे गये अनुसार अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति ही अशक्य होगी / यदि असंसृष्ट का स्मरण मानें तो यहाँ यह तो मानना ही होगा कि प्रत्यक्ष से अन्य वस्तु से असंसृष्टरूप में प्रतियोगी का ग्रहण होने पर ही वैसे स्मरण को अवकाश होगा, : अन्यथा नहीं / अब स्मृति से पूर्व प्रवृत्त प्रत्यक्ष से ही प्रतियोगी में अन्य वस्तु की असंसृष्टता का ग्रहण हो गया तो फिर अभाव प्रमाण की व्यर्थ कल्पना क्यों की जाय ? श्लोक वात्तिक में-असंकीर्ण वस्तु की सिद्धि उसके ग्राहक प्रमाण के प्रामाण्य पर अवलम्बित है, ऐसा कहा गया है तो उस का तात्पर्य यह है कि भावग्राहक प्रमाण प्रत्यक्षादि भावात्मक है तो अभावग्राहक प्रमाण अभावात्मक होना चाहिये अन्यथा भाव और अभाव की संकीर्णता हो जायगी। इस से यह सिद्ध होता है कि अभावप्रमाण को कल्पना अभाव ग्रहण के लिये को गयी है किंतु पूर्वोक्त रीति से यदि उसका ग्रहण प्रत्यक्ष से ही हो गया तो फिर अभावप्रमाण की व्यर्थता स्पष्ट है। [ अभावप्रमाण पक्ष में चक्रकावतार ] प्रत्यक्ष से-प्रतियोगी में अन्यवस्तु से असंसृष्टता का ग्रहण न मान कर अभावप्रमाण से ही माना जाय तो यहाँ चत्रक दोष का अनुबंध आपको लगेगा क्योंकि अन्यवस्तु से असंसृष्ट प्रतियोगी का ग्रहण होने पर उस प्रकार का उस का स्मरण होगा, स्मरण के होने पर तन्निमित्तक अभावप्रमाण की प्रवृत्ति होगी। अभावप्रमाण की प्रवृत्ति होने पर अन्यवस्तु की असंसृष्टता का ग्रह होगा और यह ग्रह होने पर स्मरण होगा / यह कहें कि-भूतलादि अन्य वस्तु का जो ग्रहण होता है वह केवल तद्वस्तुरूप से ही होता है प्रतियोगी संसृष्ट-असंसृष्टरूप से नहीं होता-तो यह शक्य ही नहीं क्योंकि तब वह भूतलादिअन्य वस्तुरूपता ही असिद्ध हो जायेगी, एवं प्रतियोगी घटादि केवल घटादिरूप से ही गृहीत होगा तो उस का प्रतियोगित्व भी असिद्ध हो जायगा। इस का दुष्परिणाम यह होगा कि अन्य वस्तु भूतलादि में अभाव के प्रतियोगीरूप में घटादि का नियताकार स्मरण ही नहीं होगा जो अभावग्रह में अति जरूरी है / स्मरण न होने पर फिर अभावप्रमाण की उत्पत्ति का तो नितान्त अभाव हो जायेगा।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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