________________ 104 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [प्रासंगिकमभावप्रमाणनिराकरणम् ] यच्च-गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया / / [ श्लो० वा० सू० 5, अभाव प० श्लो० 27 ] इत्यभावप्रमाणोत्पत्तौ निमित्तप्रतिपादनम् , तत्र कि वस्त्वन्तरस्य प्रतियोगिसंसृष्टस्य ग्रहणं आहोस्विद् असंसृष्टस्य ? तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, प्रतियोगिसंसृष्टवस्त्वन्तरस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणे प्रतियोगिनः प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरे ग्रहरणाद् नाऽभावाख्यप्रमाणस्य तत्र तदभावग्राहकत्वेन प्रवृत्तिः, प्रवृत्तौ वा प्रतियोगिसत्त्वेऽपि तदभावग्राहकत्वेन प्रवृत्तेविपर्यस्तत्वान्न प्रामाण्यम् / अथ प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणं तदा प्रत्यक्षेणैव प्रतियोग्यभावस्य गृहीतत्वात्तत्राभावाख्यं प्रमाणं प्रवर्तमानं व्यर्थम् / अथ प्रतियोग्यसंसृष्टतावगमो वस्त्वन्तरस्याभावप्रमाणसंपाद्यस्तहि तदप्यभावाख्यं प्रमाणं प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणे सति प्रवर्तते, तदसंसृष्टतावगमश्च पुनरप्यभावप्रमाणसंपाद्य इत्यनवस्था। तथा, प्रतियोगिनोऽपि स्मरणं कि वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य अथाऽसंसृष्टस्य ? यदि संसृष्टस्य तदा नाऽभावप्रवृत्तिरिति पूर्ववद्वाच्यम् / अथाऽसंसृष्टस्य स्मरणं, ननु प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तराऽसंसृष्टस्य प्रतिकारिका का अन्य वस्तु विज्ञानात्मक द्वितीय प्रकार का अभावप्रमाण 'साध्याभावे साधनाभावः' इस व्यतिरेकनिश्चय का निमित्त नहीं बन सकता। [ मीमांसक मान्य अभाव प्रमाण मिथ्या है ] अभाव प्रमाण की उत्पत्ति में वस्त्वन्तर का ग्रहण और प्रतियोगि के स्मरण को निमित्त बताते हुए जो यह कहा जाता है कि "वस्तु (अन्य वस्तु) की सत्ता गृहीत होने पर प्रतियोगी के स्मरण से इन्द्रियनिरपेक्ष 'वह नहीं है' इस प्रकार का मानस ज्ञान होता है।" यहाँ दो विकल्प संगत नहीं होते / प्रथम विकल्प यह है कि जो अन्य वस्तु का ग्रहण होता है वह प्रतियोगिविशिष्ट रूप से या दूसरा विकल्प-प्रतियोगि अविशिष्ट रूप से ? प्रथम का स्वीकार अयुक्त है क्योंकि प्रतियोगि सहित अन्य वस्तु (भृतलादि) का प्रत्यक्ष से ग्रहण होने पर अन्य वस्तु में प्रत्यक्ष से प्रतियोगी का ही ग्रहण हो गया फिर उसके अभाव को ग्रहण करने में अभावनामक प्रमाण की प्रवृत्ति कैसे ? अगर प्रवृत्ति होगी और प्रतियोगी के रहने पर भी उससे प्रतियोगी के अभाव का ग्रहण होगा तो कहना होगा कि वह अशवग्रहण मिथ्या है इसलिये उसमें प्रामाण्य ही नहीं है। दूसरे विकल्प का स्वीकार भी युक्त नहीं है क्योंकि प्रतियोगि से असंसृष्ट (=रहित) अन्य वस्तु का ग्रहण होने पर प्रत्यक्ष से ही प्रतियोगी का अभाव गृहीत हो गया फिर उसके ग्रहण में अभावनामक प्रमाण की प्रवृत्ति व्यर्थ हो जायेगी। यदि यह कहें कि-'अन्य वस्तु में प्रतियोगी की असंसृष्टता प्रत्यक्ष से कहाँ गृहीत हुई है ? वह तो पहले भी अभाव प्रमाण से ही गृहीत हुयी है'-तो इस पर भी यही कहना है कि जैसे प्रस्तुत अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति के पूर्व असंसृष्टता ग्राहक अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति हुयी वैसे उस असंसृष्टताग्राहि अभावप्रमाण की प्रवृत्ति भी अन्य अभावप्रमाण से प्रतियोगी असंसृष्ट अन्य वस्तु के ग्रहण के बाद ही होगी। वहाँ भी प्रतियोगिअसंसृष्टता का बोध अन्य अभाव प्रमाण से करना होगा इस प्रकार अनवस्था दुनिवार है।