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________________ 124 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ स्मृतिरप्यनुभवत्वेन प्रतिभातीति तत्प्रमोषोऽभ्युपगम्यते / नन्वेवं सैव शून्यवाद-परतः प्रामाण्यभयादनभ्युपगम्यमाना विपरीतख्यातिरापतिता। न चात्राऽप्रतिपत्तिरेव 'रजतं' इत्येवं स्मरणस्यानुभवस्य वा प्रतिभासमानाव। इदमदम्पर्यम्-अर्थसंवेदनमपरोक्षं सामान्यतो दृष्टं लिगं यदि ज्ञातव्यापारानुमापकमभ्युपगम्यते तदा स्मृतिप्रमोषे 'रजतम्' इत्यत्र संवेदनम् ? उताऽसंवेदनम् ? प्रतिभासोत्पत्तेः संवेदनेऽपि रजतमनुभूयमानतया न संवेद्यते, स्मतिप्रमोषाभावप्रसंगात , नापि स्मर्यमाणतया, प्रमोषाभ्युपगमाव, विपरीतख्यातिस्तु नाभ्युपगम्यते, तद 'रजतम्' इत्यत्र संवेदनस्याऽपरोक्षत्वाभ्युपगमाप मेऽपि प्रतिभासाभावः प्रसक्तः। कि च, स्मतिप्रमोषः पूर्वोक्तदोषद्वयभयादभ्युपगतः, तच्च तदभ्युपगमेऽपि समानम् / तथाहिसम्यग् रजतप्रतिभासेऽपि प्राशंकोत्पद्यते-'किमेष स्मतावपि स्मतिप्रमोषः, उत सम्यगनुभवः' इति सापेक्षत्वाद् बाधकाभावो [? वा] न्वेषणे परतः प्रामाण्यम्, तत्र च भवन्मतेनानवस्था प्रदर्शितैव / यत्र हि स्मृतिप्रमोषस्तत्रोत्तरकालभावी बाधकप्रत्ययः, यत्र तु तदभावस्तत्र स्मृतिप्रमोषाऽसंभव इति कथं न बाधकाभावापेक्षायां परतःप्रामाण्यदोषभयस्यावकाशः ? [स्मृति की अनुभवरूप में प्रतीति में विपरीतख्याति प्रसंग] यदि 'स्मृति का ही अनुभवरूप में भासित होना' इसको स्मृतिप्रमोष कहा जाय तब तो विपरीतख्याति जिसका शून्यवाद और परतः प्रामाण्य आपत्ति के भय से आप स्वीकार करना नहीं चाहते-वही सामने आकर खडी हो जायगी। यह भी नहीं कह सकते कि-वहाँ केवल शुक्ति का 'इदं' इस रूप से अनुभव होता है और कुछ भी अनुभव में नहीं आता-क्योंकि 'रजतं' इस प्रकार रजत का प्रतिभास वहाँ निष्प्रतिबन्ध होता है, चाहे वह प्रतिभास स्मृतिरूप हो या अनुभवरूप हो-यह बात अलग है। [ व्यापारवादी को स्वदर्शनव्याघात प्रसक्ति ] अब यह देखना है कि संवेदनात्मक फल को अपरोक्ष मानते हुये ज्ञातृव्यापार का अनुमापक मानने पर व्यापारवादी के अपने सिद्धान्त का व्याघात कैसे होता है-स्मृतिप्रमोष उपरोक्त आपत्ति के भय से मानना होगा इत्यादि पूरे कथन का तात्पर्य यह है कि संवेदनरूप फल को अपरोक्ष मानना है और उसको सामान्यतोदृष्ट लिंग बनाकर ज्ञातृव्यापार की अनुमिति को फलित करना है। किंतु इसमें स्वदर्शन व्याघात प्रसक्त होगा। स्मृतिप्रमोष में जो 'रजतम्' यह संवेदन अपरोक्ष है यह सर्वविदित होने पर उसकी मीमांसा करनी पड़ेगी कि वह वास्तव में संवेदनरूप है ? ऐसा प्रश्न इसलिये कि रजत प्रतिभास की उत्पत्ति होने से यदि वहाँ रजत का संवेदन माना जाय तो भी अनुभूयमानत्व यानी अनुभवविषयत्वरूप से वह संवेदन नहीं घटेगा क्योंकि तब तो वहां रजत का 'अनुभव' सिद्ध होने पर स्वदर्शन का व्याघात है। स्भर्यमाणरूप से वहां रजत का संवेदन भी नहीं माना जा सकता क्योंकि व्यापारवादी तो वहाँ स्मृति का प्रमोष मानता है, स्मृति का उल्लेख मानेगा तो पुनः स्वदर्शन व्याघात होगा। विपरीतख्याति मानने पर संवेदनरूपता घट सकती है किन्तु उसको मानना नहीं है / परिणाम यह हुआ कि 'रजतम्' इस संवेदन को अपरोक्ष मानने पर भी उसके प्रतिभास की अनुभूति या स्मृतिरूप से संगति न हो सकने के कारण उसका अभाव ही अन्त में प्रसक्त हुआ।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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