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________________ प्रथमखण्ड-का० १-स्मृतिप्रमोषः 125 शून्यवाददोषभयमपि स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमेऽवश्यंभावि / तथाहि-ध्वस्तश्रीहर्षाद्याकारः अनुत्पन्नशंखचक्रवांद्याकारश्च ज्ञाने यः प्रतिभाति सोऽवश्यं ज्ञानरचितोऽसन् प्रतिभाति, रजतादिस्मृतेरप्यसन्निहितरजताकारप्रतिभासस्वभावत्वात् तत्सत्त्वं तदुत्पत्तावसंनिहितं नोपयुज्यते इति असदर्थविषयत्वे ज्ञानस्य कथं शून्यवादभयाद् भवतः स्मृतिप्रमोषवादिनो मुक्तिः ? तन्न स्मृतिप्रमोषः। ___ कश्चायं स्मृतिप्रमोषः ? कि स्मृतेरभावः ? उतान्यावभासः ? आहोस्विद् अन्याकारवेदित्वम् ? इति विकल्पाः / तत्र नासौ स्मतेरभावः, प्रतिभासाभावप्रसंगात् / अथान्यावभासोऽसौ तदाऽत्रापि वक्तव्यं-किं तत्कालोऽन्यावभासोऽसौ ? अथोत्तरकालभावी ? यदि तत्कालभावी अन्यावभासः स्मृतेः प्रमो टादिज्ञानं तत्कालभावि तस्याः प्रमोषः स्यात् / अथोत्तरकालभाव्यसौ तस्याः प्रमोषः, तदप्ययुक्तम् , अतिप्रसंगात् / यदि नामोत्तरकालमन्यावभासः समुत्पन्नः, पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वेनाऽभ्युपगतस्य तत्त्वे किमायातम् ? अन्यथा सर्वस्य पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वप्रसंगः। [ स्मृति प्रमोष के स्वीकार में भी परतःप्रामाण्य भय ] स्वदर्शन व्याघात उपरांत दूसरी बात यह है कि पूर्वोक्त दोषयुगल के भय से जो स्मृतिप्रमोष माना है, उसको मानने पर भी वह भय तदवस्थ ही है। वह इस प्रकार-जब कभी रजत का सच्चा प्रतिभास होगा वहां भी यह शंका संभवित है कि 'क्या यहां रजत की स्मति होने पर भी वह गुप्त है या यह सच्ची अनुभूति ही है ?' इस शंका को हठाने के लिये यदि बाधकाभाव की शोध करेंगे तो वह अपेक्षित होने से प्रामाण्य परतः हो जायगा, और इसमें तो आपके मतानुसार अनवस्था दिखाई गयी है। जहाँ स्मृतिप्रमोष होगा वहाँ उत्तरकाल में बाधकज्ञान उत्पन्न होगा, और जहाँ बाधकज्ञान का अभाव रहेगा वहाँ उस ज्ञान के सत्य होने से स्मृतिप्रमोष का संभव नहीं रहेगा-इस प्रकार बाधकाभाव की अपेक्षा रहने पर परतःप्रामाण्यदोष भय को अवकाश क्यों नहीं मिलेगा? [स्मृतिप्रमोष स्वीकार में भी शून्यवाद भय ] स्मृति प्रमोष मानने पर शून्यवाददोष के भय से भी मुक्ति नहीं है / श्री हर्षादि आकार का ध्वंस और शंखचक्रवर्ती आदि आकार की अनुत्पत्ति से विशिष्ट जो कुछ भी ज्ञान में प्रतिभासित होता है वह केवल ज्ञान से ही रचित यानी ज्ञानभिन्न कोई उसका कारण न होने से असत् ही प्रतिभासित होता है यह मानना जरूरी है, क्योंकि उसको स्मृति का विषय नहीं मान सकते / कारण, रजत स्मति से जो रजताकार प्रतिभास होगा वह असंनिहित रजत का होगा किन्तु 'इदं रजतम्' यहाँ तो असंनिहित रूप से रजतप्रतिभास होता है। इसलिये 'इदं रजतम्' इस भ्रम ज्ञान में असंनिहित रजतसत्त्व का कोई उपयोग नहीं है। तात्पर्य 'इदं रजतं' ज्ञान का विषयभूत रजत असत् है / इस प्रकार ज्ञान जब असदर्थ विषयक भी होगा तो किसी भी ज्ञान के विषय को परमार्थ सत् मानने की आवश्यकता न रहने से शून्यवाद प्रसक्त होगा। ऐसा होने पर स्मृति प्रमोषवादी को शून्यवाद के भय से भी मुक्ति कहाँ है ? सारांश, स्मृति का प्रमोष आदरणीय नहीं है। [स्मृतिप्रमोष के ऊपर विकल्पत्रयी ] स्मृतिप्रमोष के सम्बन्ध में और भी तीन विकल्प हैं-स्मृतिप्रमोष क्या ? (१)स्मृति का अभाव है ? (2) अथवा अन्यावभास यानी अन्य ज्ञानरूप है ? (3) या अन्याकारवेदन है ?
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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