________________ 222 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ वह्नि-धूमस्वरूपद्वयग्राहिज्ञानद्वयानन्तरभाविस्मरणसहकारि इन्द्रियं सविकल्पज्ञानं जनयति तत्र तवयस्य पूर्वापरकालभाविनः प्रतिभासात कार्यकारणभावनिश्चयो भविष्यति / तदप्यसंगतम्, पूर्वप्रवृत्तप्रत्यक्षद्वयस्य तत्राऽव्यापाराव तदुत्तरस्मरणस्य च पदार्थमात्रग्रहणेऽप्यसामर्थ्याच्चक्षुरादीनां च तदवगमज्ञानजननेऽशक्तेः / शक्तौ वा प्रथमाक्षसंनिपातवेलायामेव तदवगमज्ञानोत्पत्तिप्रसंगाद् अकिचित्करस्य स्मरणादेरनपेक्षणीयत्वात् / परिमलस्मरणसव्यपेक्षस्य लोचनस्य 'सुरभि चंदनम्' इत्यविषये गन्धादौ ज्ञानजनकत्वस्येव तत्रापि तज्जनकत्वविरोधाद अथ तत्स्मरणसव्यपेक्षलोचनव्यापारानन्तरं 'कार्यकारणभूते एते वस्तुनो' इत्येतदाकारज्ञानसंवेदनात् कार्यकारणभावावगमः सविकल्पकप्रत्यक्षनिबन्धनो व्यवस्थाप्यते-नन्वेवं परिमलस्मरणसहकारिचक्षुर्व्यापारानन्तरभावी सुरभि मलयजम्' इति प्रत्ययः समनुभूयते इति परिमलस्यापि चक्षुर्जप्रत्ययविषयत्वं स्यात् / अन्यसंवित् काल में वह टीकती नहीं है। [ शाबर भाष्य में ऐसा पाठ उपलब्ध होता है-"क्षणिका हि सा, न बुद्धयन्तरकालमवस्थास्यते इति' पृ० 7 पं. 24 ] [सविकल्पज्ञान से कार्यकारणभाव का अवगम अशक्य ] अब यदि ऐसा कहा जाय कि-"प्रारम्भ में अग्नि और धूम का स्वरूपग्राही दो ज्ञान हो जाने के बाद उन दोनों का एक स्मृतिज्ञान होता है और इस स्मृतिज्ञान के सहकार से इन्द्रिय एक सविकल्प ज्ञान को उत्पन्न करती है-इस ज्ञान में 'अग्नि के बाद धूम उत्पन्न हुआ' इस प्रकार से अग्नि धूम का पूर्वापरकालभावित्व का प्रतिभास होता है और इस पौर्वापर्य के ज्ञान से अग्नि-धूम का कारण-कार्य भाव निश्चित होता है ।"-किंतु यह भी असंगत है / कारण, उपरोक्त रीति से फलित किये गये कारणकार्य भाव के निश्चय में, प्रारम्भिक अग्नि और धम का प्रत्यक्षद्वय का कुछ भी व्यापार संभव नहीं है, तथा उसके बाद उत्पन्न होने वाला स्मरण तो उक्त प्रत्यक्ष या उसके विषय के ग्रहण में ही समर्थ होता है अतः अन्य किसी भी पदार्थ के ग्रहण में वह स्मरण असमर्थ है तो कार्यकारणभाव निश्चय में तो सुतरां असमर्थ होगा। तथा चक्षु आदि इन्द्रिय भी तथोक्त निश्चय कराने वाले ज्ञान के उत्पादन में असमर्थ है / यदि कारणकार्यभाव निश्चायक ज्ञान में उसका सामर्थ्य माना जाय तब तो प्रथम वेला में ही इन्द्रिय के साथ अर्थ का संनिकर्ष होने पर उसके निश्चायक ज्ञान की उत्पत्ति होने का प्रसंग होगा। तो फिर स्मरण तो बिचारा अकिंचित्कर हो जाने से आवश्यक नहीं रहेगा। यह इस प्रकार कि-जैसे सुगन्धिपरिमल के स्मरण से सहकृत लोचन के संनिकर्ष के बाद, गन्धादि यह नेत्र का विषय न होने से 'यह चंदन सुगन्धि है' इस ज्ञान का जनकत्व अर्थात् स्मरणसहकृतनेत्रादि में गन्धादिज्ञानजनकत्व मानने में विरोध है, उसी प्रकार पूर्वोक्त स्मरण सहकृत इन्द्रिय में कार्यकारणभावनिश्चयजनकत्व मानने में भी विरोध ही है। यदि यह कहें कि-"अग्नि-धूम के स्मरण से सहकृत नेत्र के संनिकर्ष के बाद 'ये दोनों कारणभूत और कार्यभूत वस्तु है' इस आकार से ज्ञानरूप संवेदन होता है अतः हम यह व्यवस्था करते हैं कि 'कार्यकारणभाव का निर्णय सविकल्पप्रत्यक्षमूलक है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि परिमलस्मरण से सहकृत लोचन संनिकर्ष के बाद 'यह चंदन सुरभि है' इस प्रकार का ज्ञान अनुभव सिद्ध है, अतः सुगन्धि परिमल को भी नेत्रजन्य बोध का विषय मानना होगा / तात्पर्य यह है कि अग्नि-धूमस्मरण सहकृत इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान को कार्यकारणभावविषयक माना जाय तो यह आपत्ति है कि सुगन्धिपरिमलस्मरणसहकृतलोचनइन्द्रियसंनिकर्ष के बाद सुरभि चंदनम्' इस ज्ञान को भी लोचन ज य ही मानना होगा।